Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए सत्तममूलगाहाए तदियभासगाहा
३१७ द्विदीणं पि णेदव्वं । एदं च खवगोवसमसेढीसु भणिदअक्खवगाणुवसामगेसु अण्णहा भवदि । तस्स णिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तसंबंधेण कस्सामो ।
$ ४२३. संपहि एवंविहमेदिस्से भासगाहाए अत्थं विहासेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ--
* विहासा। ६ ४२४. सुगमं ।
* जं पदेसग्गमुक्कड्डिजदि सा वढि त्ति सण्णा । जमोकड्डिजदि सा हाणि त्ति सण्णा । जंण ओकड्डिजदि पदेसग्गं तमवट्ठाणं ति सण्णा।
$ ४२५. द्विदीहिं अणुभागेहि वा उक्कड्डिज्जमाणपदेसग्गस्स वड्डि त्ति सण्णा ।
अपेक्षा भी जानना चाहिये। यह क्षपक और उपशमश्रेणिमें कहा गया है। अक्षपक और अनुपशम जीवोंमें यह अल्पबहुत्वसम्बन्धी प्ररूपणा अन्य प्रकार होती है। उसका निर्णय ऊपर चूर्णिसूत्रके सम्बन्धसे करेंगे।
विशेषार्थ-क्षपकश्रेणि और उपशमश्रेणिमें आयकर्मको छोडकर सत्तारूपमें अवस्थित चाहे एक स्थितिगत प्रदेशपुज हो और चाहे अनेक स्थितिगत प्रदेशपुज हो उसमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रदेशपुजका उत्कर्षण होता है और उसके असंख्यात बहुभागप्रमाण प्रदेशपुजका अपकर्षण होता है। इन दोनोंमें इस प्रकारके अल्पबहुत्वके प्राप्त करनेका मूल कारण प्रत्येक समयमें वृद्धिको प्राप्त होनेवाला विशुद्धिविशेष है। परन्तु एक स्थितिगत या नाना स्थितिगत प्रदेशपुजमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आया है उससे उस एक या नाना स्थितियोंमें अवशिष्ट प्रदेशपुज असंख्यातगुणा होता है। यही कारण है कि प्रकृतमें अपकर्षित होनेवाले प्रदेशपुजसे स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा उनमें अवस्थित रहनेवाला प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा स्वीकार किया है।
६४२३. अब इस भाष्यगाथाके इस प्रकारके अर्थकी विभाषा करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* अब उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६४२४. यह सूत्र सुगम है।
* जो प्रदेशज उत्कर्षित किया जाता है उसकी वृद्धि यह संज्ञा है। जो प्रदेशज अपकर्षित किया जाता है उसकी हानि यह संज्ञा है। तथा जो प्रदेशपुंज न अपकर्षित किया जाता है और न उत्कर्षित किया जाता है उसकी अवस्थान संज्ञा है।
६ ४२५. स्थितियोंकी अपेक्षा और अनुभागोंकी अपेक्षा उत्कर्षित होनेवाले प्रदेशपुंजकी