Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए सत्तममूलगाहाए विदियभासगाहो
३०७
* विहासा ।
$ ३९१ सुगमं ।
* जाट्ठिदी ओकडिज्जदि सा ट्ठिदी बज्झमाणियादो अधिगा वा
हीणा वा तुल्ला वा ।
$ ३९२. सुगमं ।
* उक्कडिज्जमाणिया ट्ठिदी बज्झमाणिगादो ट्ठिदीदो तुल्ला हीणा वा, अहिया णत्थि |
$ ३९३. गयत्थमेदं सुत्तं ।
$ ३९४. एवं ताव पढमभासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि विदियभासगाहाए विहासणट्टमुत्तरसुत्तावयारो
* एत्तो विदियभासगाहा । $ ३९५. सुगमं ।
* यह प्रथम भाष्यगाथाकी विभाषा है ।
$ ३९१. यह सूत्र सुगम है ।
* जो स्थिति अपकर्षित की जाती है वह स्थिति बध्यमान स्थिति से अधिक, हीन या समान होती है ।
$ ३९२. यह सूत्र सुगम है ।
* किन्तु उत्कर्षित की जानेवाली स्थिति बध्यमान स्थिति से तुल्य या हीन होती है, अधिक नहीं होती ।
$ ३९३. यह सूत्र गतार्थ है ।
विशेषार्थ - जो कर्म एक आवलिके पूर्व बांधा हो उसका उत्कर्षण हो सकता है, क्योंकि एक तो जितना भी नया बन्ध हुआ हो उसका बन्धावलि जाने तक उत्कर्षण नहीं होता । दूसरे उदयावलिके भीतर जो भी कर्म अवस्थित है उसका भी उत्कर्षण नहीं होता। इसके अतिरिक्त शेष कर्मोंका आगमके अविरोधपूर्वक उत्कर्षण हो सकता है । यहाँ जो बध्यमान कर्मसे हीन स्थितिवाला सत्कर्म है या समान स्थितिवाला सत्कर्म है उसका बध्यमान कर्ममें उत्कर्षणका जो विधान किया है सो उसका भाव यह है कि बध्यमान कर्म जिस स्थितिका उत्कर्षण हो उससे कमसे कम इतना अधिक तो होना ही चाहिये जिससे उत्कर्षण के लिए बध्यमान कर्ममें जघन्य अतिस्थापना और जघन्य निक्षेपकी प्राप्ति हो जाय ।
$ ३९४. इस प्रकार सर्वप्रथम भाष्यगाथाकी अर्थविभाषा समाप्त करके अब दूसरी भाष्यगाथाकी विभाषा करनेके लिए आगेके सूत्रका अवतार होता है
* यह दूसरो भाष्यगाथा है ।
$ ३९५. यह सूत्र सुगम है ।