Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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* जहा ।
$ ३९६. सुगमं ।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
(१०६) सग्वे वि य अणुभागे ओकडुदि जे ण आवलियपविट्ठे । उकडुदि बंधसमं णिरुवक्कमं होदि आवलिया ।। १५९ ।। $ ३९७. एदीए विदियभासगाहाए अणुभागविसयाण मोकड्डुक्कड्ड णाणं पत्रुत्तिविसेसो जाणाविदो । तं जहा - 'सव्वे वि य' एवं भणिदे सव्वे चैव अणुभागे ओकड्डदि, बंधसरिसाणं तत्तो अब्भहियाणं च सव्वेमिमेत्राणुभाग फद्दयाणं सव्वासु हिदीसु वट्टमाणाणमोकड्डणापवुत्तीए पडिसेहाभावादो। एत्थतणसव्वग्गहणेण आदीदो पहुडि जहण्णा इच्छावणाणिक्खेवमेत्तफयाणं पि ओकड्डणाइप्पसंगो ति णासंकणिज्जं, उदयालियबाहिरासेसट्ठिदीओ ओकड्डेमाणस्स तदुवारेण सव्वेसिमणुभागद्दयाणं पि ओकड्डणा जादा ति एदेणाहिप्पाएणेदस्स परुविदत्तादो | एदेण सामण्णणिद्देसेण आवलियपविद्वाणं पि अणुभोग फद्दयाण मोकड्ड णाइप्प संगे तण्णिवारणट्टमिदं वृत्तं 'जे ण आवलियपविट्टे त्ति' जे पुण आवलियपविट्ठा अणुभागा ते ण ओकड्डदि, तत्तो वदिरित्ताणि चैव सव्वाणुभाग फद्दयाणि ओकड्डदि ति हो ।
* वह जैसे ।
$ ३९६. यह सूत्र सुगम है ।
(१०६) जो अनुभाग आवलि ( उदयावलि) में प्रविष्ट नहीं हुआ है ऐसे सभी प्रकारके अनुभागोंका अपकर्षण करता है तथा बन्ध सदृश अनुभागका उत्कर्षण करता है । मात्र एक आवल (बन्धावलि) निरुपक्रम होती है ।। १५९ ।।
$ ३९७. इस दूसरी भाष्यगाथा द्वारा अनुभागविषयक अपकर्षण और उत्कर्षणकी प्रवृत्तिविशेषका ज्ञान कराया गया है। वह जैसे - 'सव्वे वि य' ऐसा कहनेपर सभी अनुभागों का अपकर्षण करता है, क्योंकि जो सभी स्थितियोंमें विद्यमान हैं ऐसे बन्धके सदृश और उससे अधिक सभी अनुभागसम्बन्धी स्पर्द्धकोंके अपकर्षणविषयक प्रवृत्ति होनेमें प्रतिषेधका अभाव है ।
शंका- इस वचनमें जो 'सर्व' पदको ग्रहण किया है उसके अनुसार आदिके स्पर्धकसे लेकर जघन्य अतिस्थापना और निक्षेपरूप स्पर्धकोंके अपकर्षणका प्रसंग आता है ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि उदयावलिके बाहर स्थित समस्त स्थितियोंका अपकर्षण करनेवालेके इस द्वारा सभी अनुभागस्पर्धकोंका भी अपकर्षण होता है इस प्रकार इस अभिप्राय से 'सभी अनुभागस्पर्धकोंका अपकर्षण होता है' ऐसा प्ररूपण किया है । 'वे व अणुभागे' यह सामान्य निर्देश है, इसलिए इस द्वारा आवलि (उदयावलि) प्रविष्ट अनुभाग स्पर्धकों का भी अपकर्षणसम्बन्धी अतिप्रसंग प्राप्त होता है, इसलिए उसका निवारण करनेके लिए 'जे ण आवलियपविट्टे' यह वचन कहा है । इसलिये यह अर्थ हुआ कि जो अनुभागस्पर्धक आवलि ( उदयावलि) प्रविष्ट हैं उनका अपकर्षण नहीं करता है । किन्तु उनसे