Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 351
________________ ३१० जवधवलासहिदे कसायपाहुडे ४०१. एतदुक्तं भवति--एदिस्से भासगाहाए बंधाणलोमेण णिहालिज्जमाणे अण्णारिसो अत्थो थूलसरूवो अण्णारिसो च सब्भावदो णिरूविज्जमाणे सुहुमत्थो अत्थावत्तिगम्मो त्ति ।। ४०२. एवं च उहयत्थसंभवे तत्थ ताव बंधाणुलोममेदिस्से अत्थविहासणं पढमं कस्सामो णि जाणावेमाणो सुत्तमुत्तरमाह * बंधाणुलोम ताव वत्तहस्सासो । $ ४०३. गाहासुत्तपबंधाणुसारेण जहसुदत्थपरूवणा बंधाणुलोमं णाम । तमेव ताव पुव्वं वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होइ । अन्य अर्थ है। $ ४०१. इसका यह तात्पर्य है-इस भाष्यगाथाको बन्धानुलोमसे देखनेपर स्थूलस्वरूप अन्य प्रकारका अर्थ होता है और सद्भावरूपसे देखनेपर अर्थापत्तिगम्य सूक्ष्मरूप अन्य अर्थ होता है। विशेषार्थ--प्रकृतमें अनुभागके अपकर्षण और उत्कर्षणकी दृष्टिसे चूर्णिसूत्रकारने दो प्रकारकी प्ररूपणाका निर्देश किया है। पहली प्ररूपणा स्थितिको माध्यम बनाकर अनुभागके अपकर्षण और उत्कर्षणसे सम्बन्ध रखती है और दूसरी प्ररूपणा सीधे अनुभागके उत्कर्षण और अपकर्षणसम्बन्धी नियमोंको ध्यानमें रखकर की गई है। इस दूसरी प्ररूपणामें स्थितिको माध्यम नहीं बनाया गया है। इनमेंसे प्रथम प्ररूपणाका नाम बन्धानुलोम प्ररूपणा है, क्योंकि इसमें गाथासूत्रमें निबद्ध पदोंकी की गई रचनाकी मुख्यता है उसके अनुसार यह प्ररूपणा की गई है, इसलिये इसे बन्धानुलोम कहकर स्थूल प्ररूपणा कहा गया है। अनुभागविषयक अपकर्षणके नियमोंको थोड़ी देरके लिए यदि गौण भी कर दिया जाय तो भी उत्कर्षणको लक्ष्यमें रखकर गाथासूत्रके उत्तरार्ध में जो व्यवस्था की गई है वह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि उससे उत्कर्षणके आवश्यक नियमोंपर बहुत ही कम प्रकाश पड़ता है। यह एक ऐसा कारण है जिससे इसे स्थूलप्ररूपणा कहना उपयुक्त है। सद्भावका अर्थ प्रकृतमें यथार्थ है । अनुभागविषयक अपकर्षण और उत्कर्षण किस विधि या नियमोंके आधारपर होता है उनको लक्ष्यमें रखकर जो प्ररूपणा प्रकृतमें की गई है इसका नाम सद्भावप्ररूपणा है। यतः यह अनुभागविषयक अपकर्षण और उत्कर्षणके नियमोंको ध्यानमें रखकर की गई है, इसलिए यह सूक्ष्म है ऐसा यहाँ समझना चाहिये। गाथासूत्रमें जो 'बन्धसमं' पद आया है उसका प्रकृतमें ऐसा आशय लेना चाहिये कि जिस प्रकृतिका नवीन बन्ध जितनी स्थितिको लिये हुए होता है वहींतक उस समय उस प्रकृतिका उत्कर्षण हो सकता है। उसे उल्लंघन कर उत्कर्षण नहीं होता। ४०२. इस प्रकार प्रकृतमें दोनों प्रकारके अर्थ सम्भव होनेपर उनमेंसे सर्वप्रथम इस सूत्रगाथासम्यन्धी बन्धानुलोम अर्थकी विभाषा करते हैं इस प्रकार इस अर्थका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं-- * सर्वप्रथम बन्धानुलोम अर्थको बतलावेंगे । ६४०३. गाथासूत्रके प्रबन्ध अर्थात् रचना को लक्ष्य कर श्रुतके अनुसार प्ररूपणाका नाम बन्धानुलोम प्ररूपणा है । उसीको सर्वप्रथम बतलावेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।

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