Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६१. पढमसमयपरूवणादो विदियसमए जं णाणत्तं तमिदाणिं वत्तइस्सामो त्ति भणिदं होदि ।
* तं जहा।
६२. सुगमं ।
* गुणसेढी असंखेनगुणा । सेसे च णिक्खेवो । विसोही च अणंतगुणा । सेसेसु आवासयेसु णथि णाणत्तं ।
६६३. एवमेदाणि तिण्णि चेव णाणत्ताणि, अण्णेसु आवासयेसु ण किंचि णाणत्तमत्थि, तेसिं पुव्वुत्ताणं चेव विदियसमए वि पवुत्तिदंसणादो त्ति भणिदं होदि ।
* एवं जाव पढमाणुभागखंडयं समत्तं ति।
६४. एवमेदेणाणंतरपरूविदेण कमेण ताव णेदव्वं जाव एत्तो उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तमद्धाणं गंतूण पढमाणुभागखंडयं णिहिदं त्ति । कुदो? एदम्मि विसये विदियसमयफ्रूवणाए णाणत्तेण विणा पवुत्तिदंसणादो ।
* तदो से काले अण्णमणुभागखंडयमागाइदं । सेसस्स अणंता भागा।
$ ६५. पढमाणुमागखंडये अंतोमुहुत्तेण पिल्लेविदे तदणंतरसमए चेव अण्णमणुभागखंडयं घादिदसेसाणुभागस्स अणंतभागमेत्तमागाइदमिदि वृत्तं होइ । एवं
६१. प्रथम समयकी प्ररूपणासे दूसरे समयकी प्ररूपणामें जो नानापन अर्थात् भेद है उसे इस समय कहेंगे यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* वह जैसे । ६६२. यह सूत्र सुगम है।
* गुणश्रेणि असंख्यातगुणी होती है और शेषमें निक्षेप होता है। विशुद्धि अनन्तगुणी होती है । शेष आवश्यकोंमें नानापन नहीं है ।
$ ६३. इस प्रकार ये तीन ही नानापन हैं, अन्य आवश्यकोंमें कुछ भी नानापन नहीं है, क्योंकि उनकी पूर्वोक्तरूपसे ही दूसरे समयमें प्रवृत्ति देखी जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* इस प्रकार प्रथम अनुमागकाण्डकके समाप्त होनेतक जानना चाहिये ।।
६ ६४. इस प्रकार अनन्तर की गई इस प्ररूपणाके क्रमसे आगे अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल जाकर प्रथम अनुभागकाण्डकके समाप्त होनेतक कथन करना चाहिये, क्योंकि इस कालके भीतर अन्य प्रकारके नानापनके बिना दूसरे समयकी प्ररूपणाके समान ही प्रवृत्ति देखी जाती है ।
* उसके बाद अगले समयमें अन्य अनुमागकाण्डकको ग्रहण करता है, जो शेष रहे अनुभागके अनन्त बहुभागप्रमाण होता है।
६५. अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा प्रथम अनुभागकाण्डकके निर्लेपित हो जानेपर तदनन्तर समयमें ही घात करनेके बाद शेष रहे अनुभागके अनन्त बहुभागप्रमाण अन्य अनुभागकाण्डकको