Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए अणियट्टिकरणे विसेसपरूवणा
१८५ तक्काले पढमट्ठिदिखंडयं पढमो डिदिबंधो अण्णमणुभागखंडयं च जुगमेव णिट्ठिदाणि । एवमेदेण कमेण पुणो पुणो हिदि-अणुभागे घादेमाणस्स संखेज्जसहस्समेत्तेसु द्विदिखंडएसु गदेसु ताधे अणियट्टिअद्धाए संखोज्जा भागा गदा होति । संपहि तम्हि अवत्थंतरे वट्टमाणस्स द्विदिबंधपरिहाणिं जहाकम परूवेमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं मणइ
* एवं संखेज्जेसु ठिदिवंधसहस्सेसु गदेसु तदो अण्णो हिदिबंधो असण्णिहिदिबंधसमगो जादो।
८३. एत्थासण्णिट्ठिदिबंधो त्ति वुत्ते मोहणीयस्स सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सत्तभागा गहेयव्वा । णाणावरणादीणं पि अप्पप्पणो परिभागेण सागरोवमसहस्सस्स तिण्णि ससभागा, वेसत्तभागा च गहेयव्वा। एवंपयारेण असण्णिट्ठिदिबंधेण समगो एत्थतणहिदिबंधो द्विदिबंधोसरणमाहप्पेण जादो ति एसो एत्थ सुत्तत्थविणिच्छओ। ____ * तदो संखेज्जेसु हिदिवंधसहस्सेसु गदेसु चरिंदियट्टिदिबंधसमगो जादो। ___ ८४. चउरिंदियट्ठिदिबंधो त्ति वुत्ते मोहणीयादीणं सागरोवमसदस्स चत्तारि सत्तभागा तिणि सत्तभागा, वे सत्तभागा च जहाकम गहेयव्वा । एवंविहेण चउरिंदियहिदिबंधेण समगो एत्थतणट्ठिदिबंधो जादो त्ति भणिदं होदि । निपतित होनेपर उसी समय प्रथम स्थितिकाण्डक, प्रथम स्थितिबन्ध और अन्य अनुभागकाण्डक एक साथ ही समाप्त होते हैं। इस प्रकार इस क्रमसे पुनः पुनः स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका घात करनेवाले जीवके संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर उस समय अनिवृत्तिकरणके कालका संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाता है। अब उस दूसरी अवस्थामें विद्यमान हुए जीवके स्थितिबन्धकी हानिका क्रमानुसार कथन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* इस प्रकार संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर तत्पश्चात् अन्य स्थितिबन्ध असंज्ञियोंके स्थितिवन्धके समान हो जाता है।
६८३. यहाँपर 'असंज्ञियोंका स्थितिबन्ध' ऐसा कहनेपर मोहनीयकर्मका एक हजार सागरोपमके चार-सातभागप्रमाण ग्रहण करना चाहिये । ज्ञानावरणादि कर्मोंका भी अपने-अपने प्रतिभागके अनुसार एक हजार सागरोपमके तीन-सातभागप्रमाण और दो-सातभागप्रमाण ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकारसे असंज्ञियोंके स्थितिबन्धके समान यहांका स्थितिबन्ध स्थितिबन्धापसरणके माहात्म्यवश हो जाता है । इस प्रकार यहाँपर यह सूत्रके अर्थका निश्चय है।
* तत्पश्चात् संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर चतुरिन्द्रिय जीवोंके समान स्थितिबन्ध हो जाता है।
$ ८४. 'चतुरिन्द्रिय जीवोंका स्थितिबन्ध' ऐसा कहनेपर मोहनीय आदि कर्मोंका सौ सागरोपमके चार-सातभाग,तीन-सातभाग और दो-सातभागप्रमाण यथा क्रमसे ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान यहाँ सम्बन्धी स्थितिबन्ध हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।