Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे खंडएसु गदेसु तदो अण्णं द्विदिखंडयमण्णमणुभागखंडयमण्णं द्विदिबंधमंतरट्ठिदीणमुक्कीरणं च एदाणि चत्तारि वि करणाणि कादं जुगबमाढत्तो ति वुत्तं होदि । तत्थ किमंतरकरणं णाम ? अंतरं विरहो सुण्णभावो त्ति एयहो। तस्स करणमंतरकरणं, हेट्ठा उवरिं च केत्तियाओ द्विदीओ मोत्तूण मज्झिल्लाणं द्विदीणं अंतोमुहत्तपमाणाणं णिसेगे सुण्णत्तसंपादणमंतरकरणमिदि भणिदं होइ । तं पुण केसि कम्माणं केत्तियं वा पढमद्विदि मोत्तण केत्तिएसु द्विदिविसेसेसु कथं पयट्टदि त्ति एदस्स णिण्णयकरण?मुत्तरं सुत्तपबंधमाह
* चउण्हं संजलणाणं णवण्हं णोकसाय-वेदणीयाणमेदेसिं तेरसण्हं कम्माणमंतरं । सेसाणं कम्माणं णत्थि अंतरं ।
६ १२२. चदुसंजलण-णवणोकसायसण्णिदाणं तेरसण्हमेव कम्माणमेत्थ अंतरं । करेदि, ण सेसाणं । कुदो ? अण्णेसि कम्माणं चरित्तमोहणीयभेदाणमेत्थासंभवादो । ण च णाणावरणादिकम्माणमंतरकरणसंभवो, मोहणीयवज्जेसु कम्मेसु अंतरकरणस्स पत्तिअभावादो।
* पुरिसवेवस्स च कोहसंजलणाणं च पढमहिदिमंतोमुत्तमत्तं मोत्तण अंतरं करेदि । सेसाणं कम्माणमावलियं मोत्तण अंतरं करेदि ।। व्यतीत होनेपर तदनन्तर अन्य स्थितिकाण्डक, अन्य अनुभागकाण्डक, अन्य स्थितिबन्ध और अन्तरसम्बन्धी स्थितियोंका उत्कीरण करनेके लिये इन चारों ही करणोंको करनेके लिये एक साथ आरम्भ करता है यह इस सूत्र द्वारा कहा गया हैं।
शंका-प्रकृतमें अन्तरकरण क्या है ?
समाधान-अन्तर, विरह और शून्यभाव ये एकार्थक शब्द हैं । उसका करना अन्तरकरण है। नीचे और ऊपरकी कितनी ही स्थितियोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण मध्यकी स्थितियोंके निषेकोंके शून्यभावका सम्पादन करना अन्तरकरण है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
परन्तु वह किन कर्मोकी कितनी प्रथम स्थितिको छोड़कर कितनी स्थितिविशेषोंमें किस प्रकार प्रवृत्त होता है इस प्रकार इस बातका निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रप्रवन्धको कहते हैं
* चार संज्वलन और नौ नोकषायवेदनीय इन तेरह कर्मोंका अन्तर करता है, शेष कर्मोंका अन्तर नहीं करता।
६ १२२. चार संज्वलन और नौ नोकषायवेदनीय इन तेरह कर्मोंका यहाँपर अन्तर करता है, शेष कर्मोंका नहीं, क्योंकि अन्य कर्म चारित्रमोहनीयके भेद नहीं हैं । और ज्ञानावरणादि कर्मोंका अन्तर सम्भव नहीं है, क्योंकि मोहनीयकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंमें अन्तरकरणकी प्रवृत्तिका होना असम्भव है।
* पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण छोड़कर अन्तर करता है तथा शेष कर्मोंकी एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिको छोड़कर अन्तर
१. ता प्रती -वेदस्स० कोह० इति पाठः । २. आप्रतो कोहस्स च इति पाठः। .