Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढोए विदियमूलगाहाए दशमभासगाहा
२५५ द्विदीदो हेडिमोवरिमद्विदीसु समद्विदीए संकामेदि त्ति घेत्तन्वं । संपहि एवंविहमेदस्स गाहासुत्तस्स अत्थं विहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* विहासा। ६२५३. सुगमं । * तं जहा। ६२५४. सुगमं । * जो जं पयडिं सछुहदि णियमा बज्झमाणीए हिदीए संछुहदि ।
भी बध्यमान और अबध्यमान प्रकृतियोंको यथासम्भव संक्रमाता हुआ बध्यमान प्रकृतियोंके वर्तमान बन्धस्थितिसे अधस्तन और उपरिम स्थितियोंमें समान स्थितिके अनुसार संक्रमाता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
- विशेषार्थ-यहाँपर उत्कर्षण और संक्रमका खुलासा करनेके प्रसंगसे सर्वप्रथम उत्कर्षणके विषयमें इस प्रकार खुलासा किया है-(१) चाहे बध्यमान प्रकृति हो या अबध्यमान उसका तत्काल बंधनेवाले समान जातीय कर्ममें उत्कर्षण होता हुआ जितना नया बन्ध हो उसकी अग्रस्थिति तक ही हो सकता है, आगे नहीं। यह गाथामें आये हुए 'बन्धसरिसम्हि' पदसे स्पष्ट होता है। (२) यदि बध्यमान या अबध्यमान प्रकृतिकी वर्तमान स्थिति योग्यता तत्काल बंधनेवाले कर्मके स्थितिबन्धसे कम हो तो उसका तत्काल बँधनेवाले कर्ममें वहीं तक उत्कर्षण होगा जितनी उत्कर्षित होनेवाले उन कर्मोंकी वह योग्यता हो यह गाथामें आये हुए 'हीणदरगे' इस पदका आशय है । उत्कर्षित होनेवाला पूरा द्रव्य तत्काल बन्धकी मात्र अग्र स्थितिमें ही निक्षिप्त नहीं होता है किन्तु बन्धस्थितिकी आबाधासे ऊपर प्रथम निषेकसे लेकर उसका निक्षेप होता है यह भी उक्त सूत्रवचनका तात्पर्य है। (३) वर्तमान समयमें होनेवाला स्थितिबन्ध कम हो और उसकी सत्वस्थिति अधिक हो तो बन्धस्थितिसे ऊपरकी सत्त्वस्थितिमें उत्कर्षण नहीं होता यह गाथासूत्रके 'अहिगे वा संकमो णत्थि' इस अंशसे ज्ञात होता है। (४) जिस समय जितना स्थितिबन्ध हो उससे उपरिम सत्त्वस्थितियोंमें उत्कर्षण होकर निक्षेप नहीं होता और न ही आबाधाके भीतर ही यह पूरे कथनका तात्पर्य है । (५) पर-प्रकृतिसंक्रमके लिए यह नियम है कि उदयावलिके भीतरके निषेकोंमें परप्रकृतिसंक्रम नहीं होता। (६) यदि बन्ध कम स्थितिवाला हो रहा हो और सत्त्वस्थिति अधिक हो तो भी उदयावलिके बाहर उसमें सर्वत्र परप्रकृति संक्रम होने में कोई बाधा नहीं आती। इतना अवश्य है कि परप्रकृति संक्रम बध्यमान और अबध्यमान सजातीय सभी प्रकृतियोंका बध्यमान सभी प्रकृतियोंकी उदयावलि बाह्य सभी स्थितियोंमें होता है यह सूत्रगाथामें आये हुए 'वा' पदसे ज्ञात होता है। शेष कथन सुगम है।
* उक्त भाष्यगाथाकी विभाषा । 5 २५३. यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। $ २५४. यह सूत्र भी सुगम है।
* जो जीव जिस प्रकृतिको संक्रमित करता है वह नियमसे बध्यमान स्थितिमें ही संक्रमित करता है।