Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढोए विदियमूल गाहाए चउत्थभासगाहा
* एत्तिगे मूलगाहाए पढमो अत्थो समन्तो भवदि ।
$ २१४. एत्तिगे अत्थे तीहिं भासगाहाहि विहासिदे विदियमूलगाहाए पढो अत्थो विहासिदो भवदि, पयडि - डिदि - अणुभागबंधेसु मग्गिदेसु पदेसंबंधस्स विहायेण गयत्थतादो ति एसो एदस्य सुत्तस्स भावत्थो । संपहि विदियत्थपडिबद्धाणं दोन्हं भासगाहाणं जहाकममत्थविहासणं कुणमाणो तासि समुक्कित्तणं विहासणं च एक्कदो भाइ, अण्णहा गंथगउरवप्पसंगादो ।
भाग-14
(८१) णिदा य णीचगोदं पयला णियमा अगि त्तिणामं च । छुच्चेय किसाया श्रंसेसु अवेदगो होदि ॥ १३४॥
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$ २१५. एसा पढममासगाहा 'के व वेदयदि अंसेसु' त्ति एदं मूलगाहाविदियावयवमस्सियूण संकामय पट्टवयेणावे दिज्जमाणपयडीणं परूवणडमोइण्णा ।
तं जहा - - 'णिद्दा य' एवं मणिदे णिद्दाणिद्दाए गहणं कायव्वं, णामेगदेसणिद्देसेण समुदायसण्णाए उवलक्खणादो । एत्थतण 'च' सद्द ेणावुत्तसमुच्चयद्वेण थीणगिद्धी व गहणं कायव्वं । एवं पयलाणिद्देसेण वि पचलापचलाए संगहो दट्ठव्वो । तदो णिद्दाणिद्दा- पचलापचला थीणगिद्धित्ति एदासि पयडीणं णीचागोद- अजसगित्तिणामाणं छण्णोकसायाणं च एदेसिं कम्माणमेसो णियमा अवेदगो ति सुत्तत्थ
* इतने अर्थका व्याख्यान करनेपर मूलगाथाका प्रथम अर्थ समाप्त होता है ।
$ २१४. तीन भाष्यगाथाओं द्वारा इतने अर्थका व्याख्यान करनेपर दूसरी मूलंगाथाका प्रथम अर्थ व्याख्यात हो जाता है । इसप्रकार प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी मार्गणा करनेपर प्रदेशबन्धका व्याख्यान शास्त्रोक्तरूपसे गतार्थ हो जाता है यह इस सूत्रका भावार्थ है । अद्वितीय अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली दो भाष्यगाथाओंकी क्रमसे अर्थविभाषा करते हुए उनकी समुत्कीर्तना और विभाषा एक साथ करते हैं, अन्यथा ग्रन्थकी गुरुताका प्रसंग प्राप्त होता है ।
(८१) निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, नीचगोत्र, अयशः कीर्ति और छह नोकषाय इन कर्मोंका सब अंशोंमें नियमसे अवेदक होता है || १३४ ||
$ २१५. यह प्रथम भाष्यगाथा मूलगाथाके 'के व वेदयदि अंसेसु' इस दूसरे अंशका अव लम्बन लेकर संक्रामक प्रस्थापकके द्वारा नहीं वेदे जानेवाली प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनेके लिए आई है। वह जैसे – 'णिद्दा य' ऐसा कहनेपर निद्रानिद्राका ग्रहण करना चाहिये, नामके एकदेशका निर्देश करनेपर उपलक्षणसे समुदायरूप संज्ञाका ग्रहण हो जाता है। अनुक्तका समुच्चय करनेवाले यहाँ आये हुए 'च' पद द्वारा स्त्यानगृद्धिका ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार प्रचला शब्दके निर्देश द्वारा भी प्रचलाप्रचलाका संग्रह करना चाहिये । इसलिए निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन प्रकृतियोंका तथा नीचगोत्र, अयशः कीर्तिनाम और छह नोकषाय इन कर्मोंका नियमसे अवेदक होता है यह इस सूत्र का समुच्चयार्थ है, क्योंकि इनकी पूर्व में ही अपने-अपने
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