Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
खवगसेढीए संकामणपट्टवगस्स पढमसुत्तगाहाए पढमभासगाहा
* किंचूणगं मुहुत्तं ति अंतोमुहुत्तं ति णादग्वं ।
$ १६८. किंचूणगं मुहुत्तमिदि एदस्य पदस्स अत्थो अतोमुहुत्तमिदि णिच्छेयव्वो ति सुत्तत्थो । एवं पढमभासगाहाए अत्थविहासं संक्खेवेण समाणिय संपहि विदियभासगाहाए विसयविभागजाणावणपुरस्सरमवयारं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ —
* अंतरदुसमयकदादो आवलियं समयणमधिच्छियण इमा गाहा । $ १६९. पुव्विन्लगाहा जम्हि समये पदिदा तत्तो पुणो विसमयणावलियमेत्तकालमइच्छियूण आवेदिज्जमाणाणमेक्कारसपयडीणं समयूणावलियमेत्तपढमट्ठदि पालिय वेदिज्जमाणाणमण्णदरवेद संजलणपयडीणमंतोमुहुत्तमे तपढमट्ठिदिं धरेयूणावट्ठिदस्स तम्हि अवत्थाविसेसे एसा विदियभासगाहा पडिबद्धा त्ति वृत्तं होइ | संपि का सा विदियभासगाहा त्ति आसंकाए पुच्छावक्कमाह
* यथा ।
$ १७० तं जहात्ति पुच्छादि सो एसो ।
२२३
(७३) झीणट्ठिदिकम्मंसे जे वेदयदे दु दोसु विडिदीसु ।
जे चावि ण वेदयदे विदियाए ते दु बोद्धव्वा ॥ १२६ ॥
* कुछ कम मुहूर्तका अर्थ अन्तर्मुहूर्त है ऐसा जानना चाहिये ।
$ १६८. 'किचूणगं मुहुत्तं' इस पदका अर्थ अन्तर्मुहूर्त है ऐसा निश्चय करना चाहिये यह इस सूत्र का अर्थ है । इस प्रकार प्रथम भाष्यगाथाके अर्थका संक्षेपमें व्याख्यान करके अब दूसरी भाष्यगाथा के विषयविभागका ज्ञान करानेके साथ उसका अवतार करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं
8 जिस समय अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न हुई है उससे अगले समय से लेकर एक समय कम एक आवलिप्रमाण काल उल्लंघन कर यह भाष्यगाथा आई है ।
$ १६९. पूर्वकी गाथा जिस स्थानमें समाप्त होती है उस स्थानसे पुनरपि एक समय कम एक आवलिप्रमाण काल उल्लंघन कर नहीं वेदे जानेवाली ग्यारह प्रकृतियोंकी एक समय कम एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिका पालन कर वेदी जानेवाली अन्यतर वेद और संज्वलन प्रकृतियोंकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थितिको धारण करके अवस्थित हुए जीवके उस अवस्थाविशेष में यह दूसरी गाथा प्रतिबद्ध है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । अब वह दूसरी भाष्यगाथा कौन-सी है ऐसी आशंका होनेपर पृच्छावाक्यको कहते हैं
* यथा ।
$ १७०. 'वह जैसे' इस प्रकार यह पृच्छाका निर्देश करनेवाला सूत्र है ।
(७३) जो क्षीण (परिक्षीण) स्थितिवाले कर्मपुंजको वेदता है वे दोनों ही स्थितियोंमें होते हैं । किन्तु जो उक्त कर्मपुंजको नहीं वेदता है वे मात्र द्वितीय स्थिति में ही जानने चाहिये ॥ १२६ ॥
I