Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जवधवलासहिदे कसायपाहुडे जेसि कम्माणमोवट्टणा अत्थि तेसिं सव्वावरणीयाणमणुभागफद्दयाणमेसो णियमा अबंधगो त्ति एदस्स भावत्थो । जेसिं कम्माणं खओवसमलद्धिसंभवादो देसघादिसरूवेणाणभागस्स ओवट्टणा संभवइ, तेसि सव्वधादिसरूवाणमणुभागफद्दयाणमबंधगो, किंतु देसघादिसरूवेणेव तेसिं बंधगो होदि त्ति । केसि च कम्माणं देसघादिसरूवेण ओवट्टणा संभवदि ति चे? णाणावरणीयचउक्क-दसणावरणीयतिय-पंचंतराइयाणि त्ति एदेसि लद्धिकम्मंसाणं देसघादिसरूवेणोवट्टणासंभवो। तदो एदेसिमणभागबंधमेत्तो हेट्ठा अंतोमुहुत्तप्पहुडि देसघादिबिट्ठाणियसरूवेण बंधमाणो एत्थ वि तहा चेव बंधदि, ण सव्वधादिसरूवेणेत्ति एसो एत्थ गाहापुबद्धेसु अत्थसंगहो।
२०६. मोहणीयस्स वि चदुसंजलण-पुरिसवेदाणं सव्व-देसघादिफद्दयसंभवे देसघादिसरूवेणेव संजदासंजदप्पहुडि बंधमाणो एत्थुद्देसे देसघादि-एयट्ठाणियसरूवेण बंधइ त्ति घेत्तव्वं, एदेसि पि ओवट्टणसंभवं पडि मेदभावादो । जेसिं पुण ओवट्टणाए पत्थि संभवो तेसिं केवलणाण-दंसणावरणीयाणं सबघादीणं चेव बंधगो होदि त्ति एसो वि अत्थो एत्थेव णिलीणो वक्खाणेयब्वो, तेसु पयारंतरासंभवादो। अघादिपयडीणं पुण साद-जसगित्ति-उच्चागोदाणं चउट्ठाणिओ तप्पाओग्गउक्कसओ अणुभागबंधो होइ त्ति एसो वि अत्थो एत्थेवंतभूदो दहन्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासयभावेण
सर्वप्रथम इस प्रकार पदसम्बन्ध करना चाहिये-जिन कर्मोंकी अपवर्तना होती है उनके सर्वावरणीय अनुभागस्पर्धकोंका यह नियमसे अबन्धक है यह इसका भावार्थ है। जिन कर्मोंकी क्षयोपशम लब्धि सम्भव होनेसे देशघातिस्वरूपसे अनुभागकी अपवर्तना सम्भव है उनके सर्वघातिस्वरूप अनुभागस्पर्धकोंका अबन्धक है, किन्तु देशघातिस्वरूपसे ही उन कर्मोका बन्ध होता है ।
शंका-किन कर्मोकी देशघातिरूपसे अपवर्तना सम्भव है ?
समाधान-ज्ञानावरणचतुष्क, दर्शनावरण तीन और पाँच अन्तराय लब्धिकांश संज्ञावाले इन कर्मोंकी देशघातिरूपसे अपवर्तना सम्भव है। इसलिए इन कर्मोंके अनुभागबन्धको यहाँसे अन्तर्मुहूर्त पूर्वसे लेकर देशघाति द्विस्थानीयरूपसे बाँधता हुआ यहाँ भी उसी रूपसे बाँधता है, सर्वघातिस्वरूपसे नहीं बांधता यह यहां गाथाके पूर्वार्धमें सूत्रका अर्थसमुच्चय है।
२०६. मोहनीय कर्मसम्बन्धी चार संज्वलन और पुरुषवेदके सर्व-घाति और देशघाति स्पर्धक सम्भव होनेपर संयतासंयत गुणस्थानसे लेकर देशघातिरूपसे बन्ध करता हुआ इस स्थानमें देशघाति-एकस्थानीयरूपसे बन्ध करता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इनकी भी अपवर्तना सम्भव है इस अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकृतियोंसे इनमें कोई भेद नहीं है। परन्तु जिन प्रकृतियोंकी अपवर्तना सम्भव नहीं है उन केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणका सर्वघातिरूपसे ही बन्धक होता है इस प्रकार यह अर्थ भी इसीमें गर्भित है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये. क्योंकि उन प्रकृतियोंमें अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है। परन्तु सातावेदनीय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र इन अघाति प्रकृतियोंका चतुःस्थानीय तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागबन्ध होता है इस प्रकार यह अर्थ भी इसीमें अन्तर्भूत जानना चाहिये, क्योंकि इस सूत्रकी