Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए विदियमूलगाहा
$ १८५. एदं पि सुगमं ।
(७७) संकामगपट्टवगों के बंधदि के व वेदयदि अंसे ।
संकामेदि व के के केसु असंकामगो होइ ॥ १३० ॥ $ १८६. एसा विदियमूलगा हा संकामणपट्टवगस्स अंतरदुसमयकदावत्थाए वट्टमाणस्स बंधोदयसंकमाणं पयडिट्ठिदिअणुभागविसयाणं परूवणट्ठमागया । तत्थ 'संकामगपट्टवगो के बंधदि' त्ति एत्थ पयडि-ट्ठिदि - अणुभाग-पदेसाणं बंधमग्गणा णाम पढमो अत्थो विद्धो । 'के व वेदयदि' इदि एदम्मि वि विदियावयवे तेसिं चेव उदयमग्गणासणिदो विदिओ अत्थो णिबद्धो । 'संकामेदि य के के' एदम्मि गाहा - पच्छद्धे पयडिआदीणं संकमपरूवणा णाम तदिओ अत्थो विद्धोति । एवमेदम्मि गाहासुते तिणि अत्था णिवद्धा । संपहि एवंविहमेदस्स गाहासुत्तस्स समुदायत्थं विहासेमाणो चुण्णिसुत्तयारो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ
* एदिस्से तिणि अत्था ।
$ १८७. सुगमं ।
* तं जहा ।
$ १८८. सुगमं ।
* के बंधदित्ति पढमो अत्थो ।
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$ १८५. यह सूत्र भी सुगम है ।
(७७) संक्रामणप्रस्थापक किस कर्मपुंजको बाँधता है, किस कर्मपुंजको वेदता है। किस-किस कर्मपुंजको संक्रमाता है और किस कर्मपुंजका असंक्रामक होता है ॥ १३० ॥
$ १८६. यह दूसरी मूल गाथा अन्तर द्विसमयकृत अवस्थामें विद्यमान संक्रामक - प्रस्थापकके प्रकृति, स्थिति और अनुभागविषयक बन्ध, उदय और सत्कर्मके कथन के लिये आई है । वहाँ 'संकामगपट्टवगो के बंधदि' इस प्रकार इस चरणमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके बन्धसम्बन्धी मार्गणा नामक प्रथम अर्थाधिकार निबद्ध है, 'के व वेदयदि अंसे' इस प्रकार इस दूसरे चरण में भी उन्हींका उदयमार्गणानामक दूसरा अर्थाधिकार निबद्ध है । 'संकामेदि य के के' इस गाथाके उत्तरार्ध में प्रकृति आदिके संक्रामणप्ररूपणा नामक तीसरा अर्थाधिकार निबद्ध है । इस प्रकार इस गाथासूत्रमें तीन अर्थाधिकार निबद्ध हैं। अब इस प्रकार इस गाथासूत्रके समुच्चयार्थका व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकार आगे के सुत्रप्रबन्धको कहते हैं
* इस गाथासूत्रके तीन अधिकार हैं ।
$ १८७. यह सूत्र सुगम है । * वह जैसे ।
$ १८८. यह सूत्र सुगम है ।
# किन कर्मपु जोंको बांधता है यह प्रथम अर्थ है ।