Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे करणादिपयत्तविसेसाभावादो च । तम्हा अंतरकरणं कादूण भरेण मोहणीयं खवेमाणो चेव संकामणपट्ठवगो होदि त्ति एसो एदस्स मावत्यो । (७२) संकामगपट्ठवगस्स मोहणीयस्स दो पुण विदीओ
किंचणियं मुहुत्तं णियमा से अंतरं होई ॥१२५॥ $ १६७. एसा पढमभासगाहा मुलगाहाए कदमम्मि अत्थविसेसे पडिबद्धा ति पुच्छिदे मूलगाहापुव्वद्धणिबद्धद्विदिसंतकम्ममग्गणाए पडिबद्धा । तं जहा–एत्थ गाहापुवढे मोहणीयस्स जो संकामगभावपट्ठवगो तस्स अंतरकदविदियसमए वट्टमाणस्स पढम-विदियट्ठिदिमेदेण दो द्विदीओ होति त्ति संबंधी कायव्यो । एदेण सामण्णवयणेण णाणावरणादिकम्माणं पि दोण्हं द्विदीणं संभवप्पसंगे मोहणीयसहस्स पुणो वि आवित्तीए संबंधं कादण मोहणीयस्सेव दो द्विदीओ होति, ण सेसाणं कम्माणमिदि वक्खाणं कायव्वं । एवं च दोण्हं द्विदीणं संभवे तासिमंतरपमाणावहारणटुं 'किंचूणयं मुहुत्तं' इच्चादि गाहापच्छद्धणिद्दे सो। णियमा णिच्छयेण से एदस्स मोहणीयस्स अंतरहिदिपमाणं किंचूणगं मुहुत्तमंतीमुहुत्तपमाणं होइ त्ति भणिदं होइ । संपहि एदिस्से गाहाए सेसावयवा सुगमा त्ति कादूण किंचूणयं मुहुत्तमिदि एदस्सेव सुत्तावयवस्स विवरणट्ठमुत्तरसुत्तमाह
उनको क्षपणामें अन्तरकरण आदिरूप प्रयत्नविशेषका अभाव है। इसलिए अन्तरकरण करके
रे भर अर्थात वेगके साथ मोहनीयकी क्षपणा करनेवाला ही संक्रामणप्रस्थापक होता है यह इसका भावार्थ है।
(७२) संक्रामणप्रस्थापकके मोहनीयकर्मकी दो स्थितियां होती हैं। उन दोनोंके होनेपर मोहनीयका अन्तर नियमसे कुछ कम मुहूर्तप्रमाण होता है ॥१२५।।
$ १६७. यह प्रथम भाष्यगाथा मूलगाथाके किस अर्थविशेषमें सम्बद्ध है ऐसा पूछनेपर कहते हैं-मूलगाथाके पूर्वार्धमें निबद्ध स्थितिसत्कर्मकी मार्गणामें प्रतिबद्ध है। वह जैसे-यहाँपर गाथाके पूर्वार्धमें बतलाया है कि मोहनीयकर्मका जो संक्रामकभावका प्रस्थापक है अन्तरकृत द्वितीय समयसे विद्यमान उसके प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थितिके भेदसे दो स्थितियां होती हैं ऐसा यहाँ सम्बन्ध करना चाहिये। इस सामान्य वचनसे ज्ञानावरणादि कर्मोंकी भी दो स्थितियोंकी सम्भावनाका प्रसंग प्राप्त होनेपर मोहनीय शब्दका पुनः आवृत्ति द्वारा सम्बन्ध करके मोहनीयकर्मकी ही दो स्थितियाँ होती हैं, शेष कर्मोंकी नहीं ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । और इस प्रकार दो स्थितियोंके सम्भव होनेपर उनके अन्तरके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये 'किंचूणयं मुहत्तं' इत्यादिरूपसे गाथाके उत्तरार्धका निर्देश किया है। 'णियमा से' निश्चयसे 'से' अर्थात् इस मोहनीयकर्मके अन्तर स्थितिका प्रमाण किंचूणगं मुहुत्तं' अर्थात् अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस गाथाके शेष अवयववचन सुगम हैं ऐसा समझकर 'किंचूणयं मुहुत्तं' सूत्रके इस अवयवका ही विवरण करनेके लिये आगेके सूत्रको कहते हैं