Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
२२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ६१७१. एदिस्से गाहाए अत्थो बुच्चदे । तं जहा--'झीणट्ठिदिकम्मसे' एवं भणिदे परिक्खीणहिदियाणि कम्माणि त्ति भणिदं होदि । एदं च पदं सोदयाणमणदयाणं च अंतरदुसमकदादो पाये समयूणावलियमेत्तीणं द्विदीणं परिक्खयमुवेक्खदे । तदो अंतरविदीओ णिल्लेविय पुणो समयणावलियमेत्तीओ वेदिज्जमाणावेदिज्जमाणाणं पढमद्विदीओ गालिय जो द्विदो जीवो सो तदवत्थाए जे कम्मंसे झीणविदिविसेसिदे अणभवदि ते तस्स दोसु वि ट्ठिदीसु दट्टव्वा, तेसिमंतोमुहुत्तमेत्तीए पढमहिदीए ताधे णिव्वाहमुवलंभादो।
5 १७२. अधवा झीणद्विदिकम्मसे संजादे ति सत्तमीणि सो एसो, तेण अवेदिज्जमाणाणमेक्कारसण्हं. पयडीणं समयणावलियमेत्तपढमद्विदीए झीणाए तदो जाणि कम्माणि वेदयदि ताणि तस्स दोसु वि द्विदीसु दट्ठवाणि त्ति सुत्तत्थसंबंधो । 'जे चावि ण वेदयदे' एवं भणिदे जे पुण कम्मंसे ण वेदयदि ते तस्स विदियट्ठिदीए
चेव होति त्ति बोद्धव्वा, तेसिं पढमट्ठिदीए गलिदत्तादो त्ति भणिदं होइ । तदो एसा वि गाहा मूलगाहापुबद्धणिबद्धमेव किंचि अत्थविसेसं जाणावेदि त्ति णिच्छेयव्यं ।।
१७३. अधवा पढमभासगाहाए पुव्वद्धम्मि मोहणीयस्स दो द्विदीओ होंति त्ति सामण्णेण परूविदं । उदयाणुदयपयडीणं पढमठिदिविसओ जो भेदो सो ण परूविदो । एदीए पुण गाहाए सो चेव अत्थो विसेसियण भणिदो त्ति दट्ठव्वो।
६ १७१. अब इस गाथाका अर्थ कहते हैं। वह जैसे-'झीणट्टिदिकम्मसे' ऐसा कहनेपर जिनकी स्थिति क्षीण हो गई है ऐसे कर्म लेने चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। और यह पद उदयसहित और अनुदयसहित कर्मोंके अन्तर करनेके अगले समयसे लेकर एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्थितियोंके क्षयको अपेक्षासे निबद्ध हुआ है, इसलिए अन्तर स्थितियोंका निर्लेपन करके पुनः वेदे जानेवाले और नहीं वेदे जानेवाले कर्मों के एक समय कम एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितियोंको गलाकर जो जीव स्थित है वह उस अवस्थामें झीन स्थितिवाले जिन कर्मपुंजोंको अनुभवता है वे उस जीवके दोनों ही स्थितियोंमें जानने चाहिये, क्योंकि उस समय उनकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण प्रथम स्थिति निर्वाधरूपसे पाई जाती है।
१७२. अथवा कर्मोंके झीन स्थितिवाले हो जानेपर, यहाँ यह सप्तमी विभक्तिका निर्देश है इसलिये नहीं वेदे जानेवाली ग्यारह प्रकृतियोंको एक समय कम एक आवलिप्रमाण प्रथम स्थितिके झीण हो जानेपर तत्पश्चात् यह जीव जिन कर्मोंको वेदता है वे उस जीवके दोनों ही स्थितियोंमें जानने चाहिये ऐसा यहाँ इस सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिये और 'जे चावि ण वेदवदे' ऐसा कहनेपर जिन कर्मोंको नहीं वेदता है वे उसके द्वितीय स्थितिमें ही होते हैं ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि वे प्रथम स्थितिरूपसे गल गये हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिये यह गाथा भी मूल गाथामें निबद्ध किंचित् अर्थविशेषका ही ज्ञान कराती है ऐसा निश्चय करना चाहिये।
$ १७३. अथवा प्रथम भाष्यगाथाके पूर्वार्धमें मोहनीयकर्मकी दो स्थितियाँ होती हैं ऐसा सामान्यसे कहा गया है। किन्तु उदय और अनुदयरूप प्रकृतियोंका प्रथम स्थितिसम्बन्धी जो भेद है वह नहीं कहा गया है। परन्तु इस गाथा द्वारा वही अर्थ विशेषरूपसे कहा गया है ऐसा