Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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भाग-14
खवगसेढीए अणियट्टिकरणे विसेसपरूवणा
१९३ संतकम्मस्स तेण सरिसमोवट्टणाए संभवाभावादो। संपहिं एत्थ वि डिदिबंधप्पाबहुअमणंतरपरूविदमेव दट्ठन्वमिदि पदुप्पाएमाणो सुत्तमुत्तरं भणह
* जाघे पढमदाए मोहणीयस्स पलिदोवमस्स असंखेनदिभागो हिदिवंधो जादो ताधे अप्पाबहुअं--णासागोदाणं हिदिबंधो थोवो । चदुण्हं कम्माणं द्विदिबंधो तुल्लो असंखेनगुणो । मोहणीयस्स हिदिपंधो असंखेजगुणो।
$ १०८. सुगममेदं ।
* एदेण कमेण संखेजाणि हिदिषधसहस्साणि गदाणि । तदो जम्हि अण्णो हिदिबंधो तम्हि एक्कसराहेण णामागोदाणं विदिबंधो थोवो । मोहणीयस्स हिदिबंधो असंखेनगुणो । चउण्हं कम्माणं हिदिबंधो तुल्लो असंखेजगुणो।
$१०९. कुदो एवमेत्थुद्देसे चउण्डं कम्माणं द्विदिबंधादो असंखेज्जगुणस्स मोहणीयस्स डिदिबंधस्स तत्तो असंखेज्जगुणहाणी एक्कसराहेण जादा ति णासंकणिज्जं, एत्तो प्पहुडि तस्स विसेसघादवसेण तहामावोववत्तीए विरोहामावादो।
होता है, क्योंकि स्थितिबन्धसे स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा होता है, इसलिये सदृश अपवर्तनाका होना सम्भव नहीं है। अब यहाँ भी स्थितिबन्धसम्बन्धी अल्पबहुत्व अनन्तरपूर्व कहा गया ही जानना चाहिये इस बातका कथन करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
जिस समय प्रथम बार मोहनीयकर्मका पन्योपमके असंख्यातवें मागप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है उस समय अल्पबहुत्व--नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है। चार कर्मोंका स्थितिबन्ध परस्पर तुल्य होकर असंख्यातगुणा है । मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है।
$ १०८. यह सूत्र सुगम है।
* इस क्रमसे संख्यात हजार स्थितिबन्ध व्यतीत हो जाते हैं। तब जहाँपर अन्य स्थितिबन्ध होता है वहाँपर एक बारमें नामकर्म और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध सबसे थोड़ा होता है। मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है। चार कोंका स्थितिबन्ध तुल्य होकर असंख्यातगुणा होता है।
६ १०९. शंका-इस स्थानमें चार कर्मोंके स्थितिबन्धसे मोहनीयकर्मके असंख्यातगुणे स्थितिबन्धकी एक बारमें उन कर्मोके स्थितिबन्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हानि कैसे हो गई ?
समाधान-ऐसी. आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यहाँसे लेकर उसके विशेष घात होनेके कारण उस तरहसे स्थितिबन्धके बन जानेमें विरोधका अभाव है।