Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए अणियट्टिकरणे विसेसपरूवणा * एवं संखेजाणि हिदिबंधसहस्साणि गदाणि । तदो अण्णो हिदिबंधो एकसराहेण मोहणीयस्स हिदिबंधो थोवो । तिण्हं घादिकम्माणं हिदिबंधो असंखेन्जगुणो । णामागोवाणं द्विदिबंधो असंखेज्जगुणो। वेदणीयस्स हिदिबंधो विसेसाहिओ।
६११२. एत्थ वि णामागोदाणं द्विदिबंधादो तिण्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधस्स असंखेज्जगुणहीणत्ते कारणं पुव्वं व वत्तन्वं । वेदणीयस्स द्विदिबंधो वि णामागोदाणं ठिदिबंधादो पुन्वमसंखेज्जगुणो संतो एण्हिमप्पणो द्विदिपडिभागेण विसेसाहिओ जादो त्ति घेत्तव्वं । संपहि द्विदिसंतकम्मस्स वि परिहाणी एदेणेव कमेण पयदि त्ति जाणावणमुत्तरो सुत्तपबंधो
* एदेणेव कमेण संखेवाणि हिदिबंधसहस्साणि गदाणि । ___* तदो हिदिसंतकम्ममसण्णिष्टिदिबंधेण समगं जादं । - * तदो संखेज्जेसु हिदिबंधसहस्सेसु गदेसु चरिंदियट्टिदिबंधेण समगं जादं। ____ * एवं तीइंदिय-बीइंदियहिदिबंधेण समगं जादं ।
* इस प्रकार संख्यात हजार स्थितिबन्ध व्यतीत हो जाते हैं। तत्पश्चात् जो अन्य स्थितिबन्ध होता है उसके अनुसार एक बारमें मोहनीयकर्मका स्थितिबन्ध सबसे कम होता है। तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है। नामकर्म
और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा होता है। वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है।
६११२. यहाँपर भी तीन घातिकर्मोके स्थितिबन्धके असंख्यातगुणे हीन होनेमें कारणका कथन पूर्ववत् करना चाहिये । वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध भी नामकर्म और गोत्रकर्मके स्थितिबन्धसे पूर्वमें असंख्यातगुणा होता हुआ इस समय अपने स्थितिप्रतिभागके अनुसार विशेष अधिक हो गया है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । अब स्थितिसत्कर्मकी हानि भी इसी क्रमसे प्रवृत्त होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* इसी क्रमसे संख्यात हजार स्थितिबन्ध व्यतीत हो जाते हैं । . * तत्पश्चात् स्थितिसत्कर्म असंज्ञी जीवोंके स्थितिबन्धके समान हो जाता है।
* तत्पश्चात् संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके जानेपर चतुरिन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्कर्म हो जाता है।
___* इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय जीवोंके स्थितिबन्धके समान स्थितिसत्कर्म हो जाता है।