Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
परूविदेण अप्पा बहुअविहाणेण पुणो वि संखेज्जसहरसमेतेसु हिदिबंधेसु वदिक्कंतेसु मोहणीतस्स विदूरावकिडिबिसये जहाकमं संपत्ते तदो पहुडि तस्स वि असंखेज्जे भागे द्विदिवंघेणोसरमाणस्स पलिदोवमस्सा संखेज्जदिभागिओ पढमो ठिदिबंधो समाढत्तो ति पदुष्पारमाणो सुत्तमुत्तर भणइ-
* तदो संखेज्जेसुट्ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु मोहणीयस्स वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ट्ठिदिबंधो जादो ।
१०५ सुगमं ।
* ताधे सव्वेसिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ट्ठिदिबंधो जादो । $ १०६. सुगममेदं पि सुतं । संपहि एत्थु से दिसंतकम्मं किंप्रमाणमिच्चासंकाए इदमाह-
* ताधे ट्ठिदिसंतकम्मं सागरोवमसहस्त्रपुधत्तमंतो सदसहस्सस्स ।
$ १०७. पुत्तसंधी सागरोवम सदसहस्स धत्तमेत्तं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जेहिं ठिदिखंडयसहस्सेहिं कमेण परिहीयमाणमेत्थुद्देसे सागरोवमसहसपुधत्तमेत्तमंतो सदसहस्सस्स संजादमिदि वृत्तं होदि । णेदमेत्थासंकणिज्जं ट्ठिदिबंधपडि मागेणेव हिदिसंतकम्मं पि णि ओहहृदि ति । किं कारणं ? द्विदिबंधादो संखेज्जगुणमेत्तस्स हिदि
कहे गए इस अल्पबहुत्वविधानसे फिर भी संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके जाने पर मोहनीय कर्मका भी क्रमसे दूरोपकृष्टिविषयक स्थितिबन्धके प्राप्त होनेपर वहाँसे लेकर उसके भी स्थितिबन्धापसरणके असंख्यात बहुभागके जानेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रथम स्थितिबन्ध आरम्भ होता है इस बातका ज्ञान कराते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
* तत्पश्चात् संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेपर मोहनीयकर्मका मी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध होता है ।
$१०५. यह सूत्र सुगम है ।
* उस समय सब कर्मोंका पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता 1
$ १०६. यह सूत्र भी सुगम है । अब इस स्थानमें स्थितिसत्कर्म किस प्रमाणवाला होता है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्रको कहते हैं
* उस समय स्थितिसत्कर्म एक लाख सागरोपमके भीतर एक हजार सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण होता है ।
$ १०७. पूर्वोक्त सन्धिमें जो एक लाख सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थितिसत्कर्म था वह क्रमसे संख्यात हजार स्थितिसत्कर्मोंके द्वारा घटकर इस स्थानमें एक लाख सागरोपमपृथक्त्वके भीतर एक हजार सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण हो जाता है यह उक्त सूत्र द्वारा कहा गया है । यहाँ ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये कि स्थितिबन्ध के प्रतिभागके अनुसार ही स्थितिसत्कर्म क्यों नहीं कम