Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए अणियट्टिकरणे आवासयाणि
सहस्सपुधत्तमेत्तो होदूण अंतोसागरोवमसदसहस्सस्स पयट्टदि ति वृत्तं होदि । * द्विदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्स पुधत्तमंतोको डीए' ।
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७८. अंतोकोडाको डिमेत्तं द्विदिसंतकम्ममपुत्र्वकरणपरिणामेहिं संखेज्जसहस्समेत्तट्ठिदिखंडयघादेहिं घादिदं संतं सुट्टु ओहड्डियूण अंतोकोडीएं सागरोवमलक्खपुधत्तपमाणं होतॄणाणियट्टिपढमसमए द्विदमिदि भणिदं होदि ।
* गुणसेढिणिक्खेवो जो अपुव्वकरणे णिक्खेवों तस्स सेसे सेसे च भवदि ।
$ ७९. अपुव्वकरणे जो गुणसेढिणिक्खेवो आढत्तो तस्स सेसे सेसे चेव अणि - यकिरणे गुणसेढिणिक्खेवं कुणदि, णाण्णहात्ति वृत्तं होदि । णवरि अपुव्वकरणगुढी तत्थ जहण्णुक्कस्सपरिणामसंभवेण जहण्णा उक्कस्सा च भवदि । अणियट्टि - गुणसेढी पुण दव्वविसेसणिरवेक्खा परिणाम विसेसाणुविहाइणी खविद-गुणिदकम्मंसियेसु समाणा चेव होण पयहृदि ति णिच्छओ कायव्वो । गुणसंकमो वि जो पुव्वपयट्टो अप्पसत्थाणं कम्माणमवज्झमाणाणं सो तहा चेव पयट्टदि त्ति वत्तव्वं ।
* सव्वकम्माणं पि तिण्णि करणाणि वोच्छिष्णाणि । जहा -- अप्पसागरोपमसहस्रपृथक्त्व प्रमाण होता हुआ लक्षणसागरोपमके भीतर प्रवृत्त होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । स्थितिसत्कर्म कोड़ी प्रमाण सागरोपमके भीतर लक्षपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होता है ।
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$ ७८. जो स्थितिसत्कर्म पहले अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण था वह अपूर्वकरणसम्बन्धी परिणामोंको निमित्तकर संख्यात हजारप्रमाण स्थितिकाण्डकोंके घात द्वारा घातित होकर बहुत अधिक घटकर एक कोड़ीप्रमाण सागरोपमके भीतर एकलाखपृथक्त्व सागरोपमप्रमाण होकर अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें अवशिष्ट रहता है यह उक्तका तात्पर्य है ।
* अपूर्वकरणमें जो गुणश्रेणिनिक्षेप आरम्भ किया था उसके शेष- शेषमें निक्षेप होता है ।
७९. अपूर्वकरणमें जो गुणश्रेणिनिक्षेप आरम्भ किया था उसके शेष - शेषमें ही अनिवृत्तिकरण जीव गुणश्रेणिनिक्षेप करता है, अन्य प्रकारसे निक्षेप नहीं करता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इतनी विशेषता है कि अपूर्वकरणमें जघन्य और उत्कृष्ट परिणाम सम्भव होनेसे वहाँ अपूर्व - करणगुणश्रेणि जघन्य और उत्कृष्ट होती है, परन्तु अनिवृत्तिकरणगुणश्रेणि द्रव्यविशेषकी अपेक्षा किये बिना क्षपित कर्माशिक और गुणित कर्माशिक जीवोंमें परिणामविशेष के अनुसार होकर ही प्रवृत्त होती है ऐसा निश्चय करना चाहिये । गुणसंक्रम भी नहीं बँधनेवाले अप्रशस्त कर्मोंका जो पहले प्रवृत्त हुआ था वह उसी प्रकारसे प्रवृत्त रहता है ऐसा कहना चाहिये ।
* सभी कर्मोंके तीन करण भी व्युच्छिन्न हो जाते हैं । यथा - अप्रशस्त उप
१. आ०प्रतौ - मंतोकोडाकोडीए इति पाठः । २. आ० प्रती अंतोकोडाकोडीए इति पाठः ।