Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
भाग-14
खवगसेढोए अपुष्वकरणे कज्जविसेसपरूवणा
१७७ पढमट्ठिदिखंडयकालब्भंतरे चेव पुणो पुणो अणुभागखंडयाणि गेण्हयमाणसे संखेज्जेसु अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु ताधे तदित्थाणुभागखंडएण सह पढमट्ठिदिखंडयमपुव्वकरणस्स पढमट्ठिदिबंधो च जुगवमेदाणि णिट्ठिदाणि त्ति पदुप्पायणफलमुत्तरसुत्तं
* एवं संखेज्जेसु अणुभागखंडयसहस्सेसु गदेसु अण्णमणुभागखंडयं पढमहिदिखंडयं च । जो च पढमसमए अपव्वकरणे हिदिबंधो पबद्धो, एदाणि तिण्णि वि समगं णिहिवाणि ।
६६. गयत्थमेदं सुत्तं ।
* एवं हिदिषधसहस्सेहिं गदेहिं अपुवकरणद्धार संखेज्जदिभागे गरे तदो णिहा-पयलाणं घंधवोच्छेदो ।
६६७. सुगममेदं सत्तं । णवरि संखेज्जदिमागे गदे त्ति सामण्णेण भणिदे वि अपुव्वकरणद्धं सत्त भागे कादण तत्थेयभागे गदे त्ति घेतव्वं, 'वक्खाणदो विसेसपडिवत्ती होई' ति गायादो ।
ताधे चेव ताणि गुणसंकमेण संकमंति ।
ग्रहण करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार प्रथम स्थितिकाण्डकके कालके गीतर ही पुनः पुनः अनुभागकाण्डकोंको ग्रहण करनेवाले जीवके हजारों अनुभागकाण्डकोंके जानेपर उस कालमें वहाँके अनुभागकाण्डकके साथ अपूर्वकरण जीवके प्रथम स्थितिकाण्डक और प्रथम स्थितिबन्ध ये तीनों ही एक साथ समाप्त होते हैं इस बातका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* इस प्रकार संख्यात हजार अनुभागकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर अन्य अनुभागकाण्डक, प्रथम स्थितिकाण्डक और जो अपूर्वकरणके प्रथम सययमें स्थितिबन्ध बांधा था ये तीनों ही एक साथ समाप्त हो जाते हैं।
६६६. यह सूत्र गतार्थ है।
* इस प्रकार हजारों स्थितिबन्धोंके व्यतीत होनेके साथ अपूर्वकरणकालके संख्यातवें भागके व्यतीत होनेपर उस समय निद्रा और प्रचलाकी बन्धव्युच्छित्ति होती है।
६७. यह सूत्र सुगम है। इतनी विशेषता है कि 'संखेज्जदिभागे गदे' ऐसा सामान्यरूपसे कहनेपर भी अपूर्वकरणके कालके सात भाग करके उनमेंसे एक भागके जानेपर ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि व्याख्यानसे विशेषकी प्रतिपत्ति होती है ऐसा न्याय है।
* उसी समय ये दोनों प्रकृतियाँ गुणसंक्रमके द्वारा अन्य प्रकृतियोंमें संक्रमित होती हैं।
१. ता प्रतौ गेव्हिय- इति पाठः ।