Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* पढमसमयअपुव्वकरणं पविद्वेण द्विदिखंडयमागाइदं । $ ४३. अधापवत्तकरणाणंतरमपुव्त्रकरणगुणट्ठाण मंतो मुहुत्तकालपडिबद्धं पविट्टेण पढमसमये चैव विदिखंडयं गहेदुमाढत्तमिदि वुत्तं होइ । किं कारणं १ अपुव्वकरणविसोहीणं द्विदि-अणुभागखंडयघादाविणाभावित्तादो । एदस्स पुण पढमट्ठिदिखंडयस्स पमाणणिण्णय मुवरि सुत्तपचद्धमेवकस्सामो । संपहि एत्थेवाणुभागखंडयं पि आढत्तमिदि जाणावणडुमुत्तरमुत्तमाह
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* अणुभागखंडयं च आगाइदं ।
४४. अपुव्वकरणविसोहिपाहम्मेण ट्ठिदिखंडयाढवणसमकालमेवाणुभागखंडयं पिगदुमादत्त मिदि भणिदं होदि । तं पुण किं पमाणमणुभागखंडयं, केत्तिं वा कम्माणं होदित्ति आसंकाए णिरागीकरण टुमुत्तरसुत्तारं भो—
* तं पुण अपसत्थाणं कम्माणमणंता भागा ।
$ ४५ तं पुण अणुभागखंड यमप्पसत्थागं चेत्र कम्माणं होदि, पसत्थाणं tasti विसोही अणुभागखंडय घादासंभवादो । होतं पि अप्पसत्थकम्माणमणुभागसंतकम्मस्स अनंते भागे घेत्तूण पयदृदि, करणविसोहीहिं अनंतगुणहाणीए चेव अणुभागवादो होदिति नियमदंसणा दो । एत्थ पढमाणुभागखंड यमाहप्पावबोहण -
* अपूर्वकरणके प्रथम समय में प्रविष्ट हुए जीवने स्थितिकाण्डक ग्रहण किया
$ ४३. अधःप्रवृत्तकरणके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रविष्ट हुए जीवने प्रथम समय में ही स्थितिकाण्डक ग्रहण करना प्रारम्भ किया यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि अपूर्वकरणसम्बन्धी विशुद्धियां स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डघातकी अविनाभावी होती हैं । परन्तु इस प्रथम स्थितिकाण्डकके प्रमाणका निर्णय आगे सूत्रमें निबद्ध करेंगे । अब यहीं अनुभागकाण्डकको भी आरम्भ किया इस बातका ज्ञान करानेके लिये आगे सूत्रको कहते है
* और उसी समय अनुभागकाण्डकको ग्रहण किया ।
४४. अपूर्वकरणसम्बन्धी विशुद्धिकी प्रधानतावश स्थितिकाण्डकके ग्रहण करनेके समानSara ही अनुभाग काण्डकको भी ग्रहण करनेके लिये आरम्भ किया यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है । परन्तु वह अनुभागकाण्डक कितने प्रमाणवाला होता है और किन कर्मोंका होता है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
* परन्तु वह अप्रशस्त कर्मोंका होता है तथा अनुभाग के अनन्त बहुमाग प्रमाण होता है ।
$ ४५. परन्तु वह अनुभागकाण्डक अप्रशस्त कर्मोंका ही होता है, क्योंकि प्रशस्त प्रकृतियोंका विशुद्धिवश अनुभाग काण्डकघात होना असम्भव है । ऐसा होकर भी अप्रशस्त कर्मोसम्बन्धी अनुभाग सत्कर्मके अनन्त बहुभागप्रमाण होकर प्रवृत्त होता है, क्योंकि करणसम्बन्धी विशुद्धियों के कारण अनन्तगुणहानिरूपसे ही अनुभागघात होता है ऐसा नियम देखा जाता है । यहाँपर प्रथम