Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बज्झमाणाओ पयडीओ जाव गुणसंकमे ण पडिच्छंति ताव तासिं पदेसग्गमधापवत्तसंकमेण समयं पडि विसेसाहियं चेव संकामिज्जदि ।
४७. संपहि एदस्स फुडीकरणं वत्तइस्सामो। तं जहा-जं वा तं वा बज्झमाणमेगं कम्मं पुरिसवेदादिसु णिरुद्धं कायव्वं । तत्थ अण्णपयडिपदेसग्गं गुणसंकमेण गच्छमाणं पि अस्थि । पुणो तस्सेव पढमट्ठिदिसंभवे अप्पणो पदेसग्गं गुणसेढिसरूवेण द्विदं समयं पडि उदये गलमाणं पि अस्थि । एत्थ जइ पडिच्छिज्जमाणदव्वादो समयं पडि गलमाणदव्वं बहुअं होज्ज तो बज्झमाणाणं पयडीणं पदेसग्गं परपयडीसु संकामिज्जमाणं विसेसहीणं चेव होदि, समयं पडि हीयमाणसंतकम्मादो गच्छमाणदव्वस्स वि तहामावसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो । अह गलमाणदंव्वादो समयं पडि पडिच्छिज्जमाणदव्वं बहुअं होज्ज तो समयं पडि विसेसाहियकमेण संतकम्मं वड्डमाणं गच्छदि चि। तत्तो पस्पयडीसु संकामिज्जमाणदव्वं पि तहा चेव पयदि ति विसेसाहिओ चेव संकमो जायदे । एत्थ पुण समयं पडि गलमाणदव्वादो पडिच्छिज्जमाणदव्वं गुणसंकमपाहम्मेणासंखेज्जगुणं घेव होदि । तदो संकमिददव्वं पि विसेसाहियं चेव होदि ति णिच्छेयव्वं ।
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प्रकृतियां जबतक गुणसंक्रमको नहीं प्राप्त होती हैं तबतक उनका प्रदेशपुंज अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा प्रत्येक समयमें विशेष अधिकरूपसे संक्रमित होता है।
४७, अब इसका स्पष्टीकरण करके बतलाते हैं। वह जैसे-प्रकृतमें पुरुषवेदादिकमेंसे कोई एक कर्म विवक्षित करना चाहिये। वहां अन्य प्रकृतियोंका प्रदेशपुंज गुणसंक्रम द्वारा जाता हुमा भी है । पुनः उसीकी प्रथम स्थिति होनेपर गुणश्रेणीरूपसे स्थित अपना प्रदेशपुंज प्रत्येक समयमें उदयद्वारा जीर्ण होता हुआ भी है, यहाँपर यदि संक्रमित होनेवाले द्रव्यसे प्रत्येक समयमें गलित होनेवाला द्रव्य बहुत होवे तो बध्यमान प्रकृतियोंका पर प्रकृतियोंमें संक्रमित होनेवाला प्रदेशपल्ल विशेषहीन ही होता है. क्योंकि प्रत्येक समयमें कम होनेवाले सत्कर्ममेंसे जानेवाला द्रव्य भी उस प्रकारसे बन जाता है इसकी सिद्धिमें कोई बाधा नहीं पाई जाती। और यदि गलनेवाले द्रव्यसे प्रत्येक समयमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य बहुत होवे तो प्रत्येक समयमें सत्कर्म विशेष अधिक क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होता जाता है। इसलिए परप्रकृतियोंमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य भी उसीप्रकार प्रवृत्त होता है, अतः संक्रममें विशेष अधिक ही हो जाता है। परन्तु यहाँपर प्रत्येक समयमें गलनेवाले द्रव्यसे परप्रकृतियोंमें संक्रमित होनेवाला द्रव्य गुणसंक्रमके माहात्म्यवश असंख्गातगुणा ही होता है, इसलिए संक्रमित होनेवाला द्रव्य भी विशेष अधिक ही होता है ऐसा निश्चय करना चाहिये।
विशेषार्थ-यहाँ पर किन प्रकृतियोंका कितना संक्रम और उदीरणा होती है इसका विचार करते हुए बतलाया है कि जो यहां पर नहीं बंधनेवाली अप्रशस्त प्रकृतियाँ हैं उनका प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणा प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये, क्योंकि जब तक यह जीव श्रेणिपर आरोहण नहीं करता तब तक सर्वत्र नहीं बंधनेवाली उक्त प्रकृतियोंका विध्यातसंक्रम होता है और श्रेणि आरोहण करनेपर गुणसंक्रम होने लगता है। यह तो अप्रशस्त प्रकृतियों सम्बन्धी कथन है ।