Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वडणाकरणमुव्वदृणाकरणं संकामणाकरणं चेदि एदाणि चत्तारि चेव करणाणि होति ण सेसाणि ति सम्ममवहारिदं । एवमेदं परूविय संपहि एस कमो एत्तो उवरि केत्तियमद्धाणं गच्छदि ति आसंकाए इदमाह
* मूलपयडीओ पहुच्च एस कमो ताव जाव चरिमसमयबावर सांपराइयो त्ति ।
८६. एत्थ मूलपयडिणिदेसो एदस्स गाहापुव्वद्धस्स मूलपयडिविसयत्तं सूचेदि । तदो मूलपयडिविवक्खाए एसो अणंतरपरूविदो करणवोच्छेदावोच्छेदकमो ताव दट्ठन्वो जाव अणियट्टिबादरसांपराइयचरिमसमओ ति। कुदो ? एदम्हि अंतरे पयदपरूवणाए णाणताणुवलंभादो। .
__ * सुहुमसांपराइयस्स मोहणीयस्स दो करणाणि ओवणाकरणमुदीरणाकरण च सेसाणं कम्माणं ताणि नेव करणाणि ।
5 ८७. एत्थ सुहुमसांपराइयम्मि मोहणीयस्स बंधो पत्थि । तदो चेव उक्कड्डणा संकमो च णत्थि ति वत्तव्वं, बंधणिबंधणाणं तेसिं बंधाभावे पवुत्तिविराहादो। तदो ओकड्डणाकरणमुदीरणाकरणं चेदि दो चेव एत्थ मोहणीयस्स करणाणि होति त्ति सिद्धं । सेसाणं पुण कम्माणं ताणि चेव पुवपरूविदाणि करणाणि एत्थ वि णायव्वाणि, तत्थ णाणत्तामावादो। करण और निधत्तीकरण अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक होते हैं। उदय और सत्त्व अयोगिकेवलीके अन्तिम समय तक होते हैं। इसलिए वेदनीय मूलप्रकृतिके इस स्थानपर बन्धनकरण, अपवर्तनाकरण, उद्वर्तनाकरण और संक्रमकरण ये चार ही करण होते हैं, शेष नहीं इसका सम्वक् प्रकारसे विचार किया। इस प्रकार इसका कथन करके अब यह क्रम यहाँसे ऊपर कितने स्थान तक जाता है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्रको कहते हैं
* मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा यह कम बादरसाम्परायके अन्तिम समय तक जानना चाहिये।
६८६. यहाँ चूर्णिसूत्रमें 'मूलप्रकृति' पदका निर्देश इस गाथाके पूर्वार्धके मूलप्रकृतिसम्बन्धी विषयको सूचित करता है। इसलिए मूलप्रकृतिकी विवक्षामें यह अनन्तर पूर्व कहा गया करणोंके विच्छेद और अविच्छेदका क्रम अनिवृत्ति बादरसाम्परायके अन्तिम समय तक जानना चाहिए, क्योंकि इस अन्तरमें प्रकृत प्ररूपणाका नानापना नहीं उपलब्ध होता।
* सूक्ष्मसाम्पराय जीवके मोहनीयके दो करण होते हैं-अपवर्तनाकरण और उदीरणाकरण तथा शेष कर्मों के पूर्वोक्त वे ही करण होते हैं ।
६८७. यहाँ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयका बन्ध नहीं होता इसीलिए उसका यहाँ उत्कर्षण और संक्रम नहीं होता ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि बन्ध निमित्तक उनकी बन्धके अभावमें प्रवृत्ति होनेमें विरोध है। अतः अकर्षणाकरण और उदीरणाकरण ये दो ही