Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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उवसमसेढीए मायावेदगस्स णाणत्तपरूवणा
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$ २५५. कुदो ? सुहुमबादरलोभवेगद्धाए णाणत्तेण विणा पुव्वपरूवणाए चैव एत्थ विपत्तिदंसणादो ।
* मायं वेदेंतस्स णाणत्तं । तं जहा - तिविहाए मायाए, तिविहस्स लोहस्स च गुणसेढिणिक्खेवो इदरेहिं कम्मेहिं सरिसो, सेसे सेसे च furdai |
भाग-14
$ २५६. कोहोदएण उवट्ठिदूण हेट्ठा ओदरमाणस्स मायाए पढमट्ठिदी सगवेदकालादो आवलियन् महिया चेव, एत्थ पुण तिविहाए मायाए तिविहस्स च लोहस्स गुणसेढिणिक्खेवो णाणावरणादिकम्मेहिं सरिसायामो होद्णुवरि गलिदसेसायामेण पहृदिति, एदं णाणत्तमेत्थ् दट्ठव्वं ।
* सेसे च कसाये मायं वेदंतो ओकडिहिदि ।
$ २५७. एदमेत्थ विदियं णाणत्तं दट्ठव्वं । संपहि एत्थतणगुणसेढिणिक्खेवपमाणावहारणङ्कं उत्तरसुत्तमोइण्णं ।
* तत्थ गुणसेढिणिक्खेवविधिं च इदरकम्मगुणसेढिणिक्खेवेण सरिसं काहिदि ।
वेदन करनेवाले उसी जीवके नानापन नहीं है ।
$ २५५. क्योंकि सूक्ष्म लोभके वेदन करनेके कालमें नानापनके बिना पहलेकी प्ररूपणाकी यहाँ भी प्रवृत्ति देखी जाती है ।
विशेषार्थ - क्रोध, मान और माया इनमेंसे किसी भी कषायके उदयसे श्र ेणिपर चढ़े और उतरे हुए जीवकी दशर्वे गुणस्थानमें उनकी अपेक्षा मात्र सूक्ष्म लोभका ही उदय रहता है, इसलिये इन कषायोंकी अपेक्षा दोनों अवस्थाओंमें यहां नानापन सम्भव नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * किन्तु बादमें मायाका वेदन करते हुए उसके नानापन है । वह जैसे—तीन प्रकारकी माया और तीन प्रकारके लोमका गुणश्रेणिनिक्षेप इतर कर्मोंके समान होता है और शेष - शेष में निक्षेप होता है ।
$ २५६. क्रोधके उदयसे श्रेणिपर चढ़कर नीचे उतरनेवाले जीवकी मायाकी प्रथम स्थिति अपने वेदन करनेके कालसे मात्र एक आवली काल प्रमाण अधिक होती है, परन्तु यहाँ पर तीन प्रकारकी माया और तीन प्रकारके लोभका गुणश्र णिनिक्षेप ज्ञानावरणादि कर्मोंके सदृश आयामवाला होकर ऊपर गलित शेष आयामरूपसे प्रवृत्त होता है। इस प्रकार यह नानापन यहाँपर जानना चाहिये ।
* तथा शेष कषायको मायाका वेदन करता हुआ अपकर्षित करता है ।
$ २५७. यह यहाँ दूसरा नानापन जानना चाहिये । अब यहां प्रकृतमें किये जानेवाले निक्षेप आयामकी अवधारणा करनेके लिए आगेका सूत्र आया है
* और वहाँ गुणश्रेणि निक्षेपविधिको इतर कर्मोंके गुणश्रेणि निक्षेपके समान
१. ता० प्रतौ सरिसो सेसे च इति पाठः ।
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