Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगढी तदियसुत्तगाहाए अवयवत्थपरूवणा
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पाओग्गा णुपुब्वी अपज्जत्तणामं असुतियं तित्थयरणामं च सिया, णीचागोदं, एदाणि कम्माणि उदएण वोच्छिष्णाणि ।
$ ३७. तं जहा – थोणगिद्धितियस्स पुव्वमेव उदओ वोच्छिण्णो; तदुदयस्स मत्तगुणपज्जं तत्तादो | ण एत्थ णिद्दापयलाणमुदयवोच्छेदो आसंकणिज्जो ; झाणीसुवि तासिमवत्तोदयस्स जाव खीणकसायदुचरिमसमयो त्ति संभवे विरोधाभावादो | सेसाणमुदयवोच्छेदो सुत्ताणुसारेण वत्तव्वो । णवरि णिरयगइ-तिरिक्खगइ देवगइपाओग्गणामाओ तित्ते गिरय-तिरिक्ख- देवगड-तप्पा ओग्गाणुपुच्ची- एइंदिय-विगलिंदियजादिउच्चसरीर - तदंगोवंग - आदावुज्जोव थावर - सुहुम-साहारणसरीराणं गहणं कायव्वं; सिम साहारणभावेण तिसु गदीसु जहासंभवं पडिबंधत्तदंसणादो । असुभतिगं ति बुत्ते दूमग अणादेज्ज-अजसगित्तीणं गहणं कायव्वं । 'तित्थयरणामं च सिया' त्ति भणिदे तित्थयरणामं सिया अत्थि सिया णत्थि । जइ अस्थि नियमा उदएण वोच्छिण्णमिदि घेत्तन्वं, एदम्मि विसए तदुदयस्स अच्चंताभावेण वोच्छिण्णत्तदंसणादो । तदो सुत्तासेसपयडीणमेत्थुदयवोच्छेदो । तन्वदिरित्ताणं च उदयो त्ति सिद्धो सुत्तत्थममुच्चओ | संपहि गाहा पच्छद्धविहासणट्ठमुत्तरो सुत्तपबंधो—
* 'अंतरं वा कहिं किच्चा के के संकामगो कहिं ति विहासा । प्रायोग्यानुपूर्वी, अपर्याप्तनाज, अशुभत्रिक, कदाचित् तीर्थंकर नाम और नीचगोत्र ये कर्म उदयसे व्युच्छिन्न हैं ।
$ ३७. वह जैसे – स्त्यानगृद्धित्रिक पहले ही उदयसे व्युच्छिन्न हो गई हैं, क्योंकि उनका उदय प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक होता है । यहाँपर निद्रा और प्रचलाकी उदयव्युच्छित्तिकी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ध्यानी साधुओंके भी क्षीणकसाय गुणस्थानके द्विचरम समयतक उनके अव्यक्त उदयके होनेमें विरोधका अभाव है । शेष प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्ति सूत्र के अनुसार कही चाहिये । इतनी विशेषता है कि णिरयगइ-तिरिक्खगइ देवगइपाओग्गपुव्विणामाओ ऐसा कहने पर नरकगति, तिर्यञ्चगति देवगति और इनकी आनुपूर्वीत्रिक, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियकशरीर आंगोपांग, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीर इनका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उनका असाधारणरूपसे क्रमशः तीन गतियोंके साथ ही सम्बन्ध देखा जाता है । अशुभत्रिक ऐसा कहनेपर दुर्भग, अनादेय और अयशः कीर्तिका ग्रहण करना चाहिये । 'तित्थयरणामं च सिया' ऐसा कहनेपर तीर्थंकर नामकर्म कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो यहाँपर नियमसे उदयसे व्युच्छिन्न है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इस स्थानमें उसके उदयका अत्यन्त अभाव होनेसे उसकी व्युच्छित्ति देखी जाती है । इसलिए सूत्रमें कही गई समस्त प्रकृतियोंकी यहाँ उदमव्युच्छित्ति है । उनके अतिरिक्त शेष प्रकृतियोंका उदय इस प्रकार सूत्रका समुच्चयार्थ सिद्ध हुआ । अब गाथाके उत्तरार्धकी विभाषा करनेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* अन्तरको कहां करके किन-किन कर्मोंका कहां संक्रामक होगा इस पदकी
विभाषा ।