Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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खवगसेढीए पारंभो
१४९ २. तत्थ पढमा अधापवत्तकरणद्धा, विदिया अपुव्वकरणद्धा तदिया च अणियट्टिकरणद्धा त्ति । एदासिं पादेक्कमंतोमुहुत्तपमाणावच्छिण्णाणं समयभावेणेगसेढीए विरइदाणं लक्खणविहाणं जहा दंसणमोहोवसामणाए जधापवत्तादिकरणाणि णिरु भियूण परूविदं तहा एत्थ वि परूयेमव्वं, विसेसाभावादो। णवरि हेडिमासेसकिरियासु पडिबद्धअधापवत्तादिकरणद्धाहिंतो एत्थतणअधापवत्तकरणादिअद्धाओ संखेज्जगुणहीणाओ' सुद्धयरपरिणामेसु खग्गधारासरिसेसु चिरकालमवहाणासंभवादो। अदो चेय तत्थतणपरिणामेहिंतो एत्थतणपरिणामाणमणंतगुणत्तमवहारेयव्वं, उवसामणादिणिबंधपरिणामेहिंतो खवणाणिबंधणपरिणामाणं तहाभावसिद्धीए णिप्पडिबंधमुवलंभादो ।
३. एदाओ च कधमोट्टिदव्याओ ? 'एगसंबंधाओ' एक्केक्केण संबद्धाओ अण्णोण्णाणुलग्गाओ त्ति वृत्तं होइ । एदेण अधापवत्तकरणं समाणिय पुणो अंतोमुहुत्तं विस्समिय तदो अपुव्वकरणं ण पारभदि; किंतु अधापवत्तकरणं समाणिय से काले चेव अपु बकरणं च समाणिय तदणंतरोवरिमसमए चेव अणियट्टिकरणं पारभदि त्ति एसो अत्थो जाणाविदो । 'एगावलियाए' ति वृत्ते उड्डमेगसेढीए ओट्टिदवाओ त्ति भणिदं होइ । किमट्ठमेवंविहा ढवणा एत्थ कीरदि त्ति णासंकणिज्ज; एवंविहाए ठवणाए
६२. उनमें प्रथम अधःप्रवृत्तकरणकाल है, दूसरा अपूर्वकरणकाल है और तीसरा अनिवृत्तिकरणकाल है। प्रत्येक अन्तमुहूर्तप्रमाण कालसे युक्त तथा एक-एक समयके क्रमसे एक श्रेणिरूपसे रचित इनके लक्षणकी विधि जिस प्रकार दर्शनमोहकी उपशामना नामक अधिकारमें अधःप्रवृत्त आदि करणोंको विवक्षित कर कही गई है उसी प्रकार यहाँ प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि उक्त प्ररूपणासे इसमें कोई भेद नहीं है। इतनी विशेषता है कि अधस्तन समस्त क्रियाओंके साथ सम्बन्ध रखनेवाले अधःप्रवृत्त आदि करणोंके कालसे यहाँके अधःप्रवृत्तकरण आदिके काल संख्यातगुणे हीन होते हैं, क्योंकि खड्गधाराके समान शुद्धतर परिणामोंमैं चिरकाल तक अवस्थानका बनना असम्भव है । और इसीलिये वहाँके अर्थात् दर्शनमोहनीयकी उपशामना आदिमें होनेवाले परिणामोंसे यहाँके परिणामोंको अनन्तगुणा विशुद्ध जानना चाहिये, क्योंकि उपशामना आदिके निमित्तभूत परिणामोसे क्षपणाके निमित्तभूत परिणामोंकी उस प्रकारसे सिद्धि बिना बाधाके पाई जाती है।
६३. शंका-इन परिणामोंको कैसे रचे ?
समाधान-'एगसंबद्धाओ' एक-एक कालके परिणामके साथ सम्बद्ध अर्थात् परस्पर लगे हुए यह उक्त सूत्र पदका तात्पर्य है। इस सूत्रवचनद्वारा अधःप्रवृत्तकरणको समाप्त करके पुनः अन्तमुहूर्त कालतक विश्राम करके तत्पश्चात् अपूर्वकरणको प्रारम्भ नहीं करता है, किन्तु अधःप्रवृत्तकरणको समाप्त कर तदनन्तर समयमें ही अपूर्वकरणको आरम्भ करता है और अपूर्वकरणको समाप्त करके तदनन्तर अगले समयमें ही अनिवृत्तिकरणको आरम्भ करता है, इस प्रकार इस अर्थका ज्ञान कराया गया है। सूत्र में आये हुए 'एगावलियाए' इस वचनके कहनेपर ऊर्ध्व एक श्रेणिरूपसे उक्त परिणामोंकी रचना करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
१. ताप्रती असंखेज्जगुणहीणाओ इति पाठः ।