Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
View full book text
________________
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
सुत्तत्थविणिच्छओ | संपहि एदम्मि ट्ठिदिबंधे आढते अण्णारिसं ट्ठिदिबंधप्पाबहुअं होदिति पदुपायट्टमुत्तरो सुत्तपबंधो
७४
---
* ताधे मोहणीयस्स ट्ठिदिबंधो थोवो, तिन्हं घादिकम्माणं हिदिबंधो असंखेज्जगुणो, णामागोदाणं ठिदिबंधो असंखेज्जगुणो, वेदणीयस्स द्विदिबंध विसेसाहिओ ।
$ १७३. सुगमत्तादो ण एत्थ किंचि वत्तव्वमत्थि ।
* जाधे घादिकम्माणमसंखेज्जवस्सट्ठिदिगो बंधो ताधे चेव एगसमएण णाणावरणीयचडव्विहं दंसणावरणीयतिविहं पंचतराइयाणि दाणि दुट्ठाणियाणि बंधेण जादाणि ।
$ १७४ चडमाणयस्स संखेज्जवस्सट्ठिदिबंधपारंभसमकालमेव एदेसिं कम्माणगट्ठाणियो बंध जादो, एहि पि संखेज्जवस्सट्ठिदिबंधे पज्जवसिदे असंखेज्जवस्सियद्विदिबंधपारंभसमकालमेव पज्जवसिदो । एत्तो पाये सव्वासिमेव तासिं दुट्ठाणियाणुभागं बंधइति तत्संगहो । संपहि एतो पुणो वि संखेज्जेसु ट्ठिदिबंधसहस्सेसु अणंतरपरूविदेण अप्पाबहुअविहिणा गदेसु जम्हि उद्दे से चडमाणस्स णवु सयवेदो उवसंतो तमुद्दे समपत्तस्सेवेदस्स णव सयवेदो अणुवसंतो होदि । ताधे चैव तमोकड्डियूण
असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध हो जाता है यह इस सूत्रका निश्चयार्थ है । अब इस स्थितिबन्ध के प्राप्त होनेपर अन्य प्रकारका स्थितिबन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्व होता है इस बातका कथन करने के लिए आगे सूत्रप्रबन्धको कहते हैं
* उस समय मोहनीयका स्थितिबन्ध स्तोक है, उससे तीन घातिकर्मोंका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है, उससे नाम और गोत्रकर्मका स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है तथा उससे वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ।
$ १७३. सुगम होने से यहाँ कुछ वक्तव्य नहीं है ।
* जिस समय घातिकर्मोंका असंख्यात वर्णप्रमाण स्थितिवाला वन्ध होता है। उसी समय एक समय में चार प्रकारका ज्ञानावरण, तीन प्रकारका दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्म ये बन्धकी अपेक्षा द्विस्थानीय हो जाते हैं ।
$ १७४. चढ़नेवाले जीवके संख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्धका प्रारम्भ जिस समय होता है। उसी समय इन कर्मोंका एकस्थानीय बन्ध हो जाता है । यहाँ भी संख्यात वर्ष स्थितिबन्ध समाप्त होने पर असंख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध प्रारम्भ होते समय यहाँसे लेकर उन्हीं सब प्रकृतियोंके द्विस्थानीय अनुभागको बाँधता है । यह सूत्रका समुच्चयार्थ है । अब यहाँसे आगे फिर भी अनन्तर कही गई अल्पबहुत्वविधिके अनुसार संख्यात हजार स्थितिबन्धोंके जानेपर जिस स्थान पर चढ़नेवाले जीवके नपुंसक वेद उपशान्त होता है उस स्थानको नहीं प्राप्त हुए इसका नपुंसकवेद अनुपशान्त होता है । तथा उसी समय उसका अपकर्षण कर उसके अन्तरको भरता हुआ