Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सो वि ओदरमाणयस्स सव्वावत्थाए चेव णत्थि त्ति एदस्सत्थविसेसस्स पुव्वमवहारिदसरूबस्स वि पुणो वि णिच्छयकरणट्ठमुत्तरसुत्तमोइण्णं
* अणियट्टिप्पहुडि मोहणीयस्स अणाणुपुव्विसंकमो लोभस्स वि संकमो।
$ १७९. ओदरमाणाणियट्टिपढमसमयप्पहुडि सव्वत्थेवादिक्कंतविसयमोहणीयस्साणुपुव्वीसंकमणियमो णत्थि, किंतु अणाणुपुव्वीसंकमो चेव एत्थ होदि त्ति, अदो चेव लोभसंजलणस्स वि संकमो त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थणिच्छओ। ओदरमाणसुहुमसांपराइयपढमसमयप्पहुडि चेव मोहणीयस्स अणाणुपुन्विसंकमो ति किमेवं ण उच्चदे १ ण, सुहुमसांपराइयगुणट्ठाणे मोहणीयस्स बंधाभावेण संकमपवुत्तीए तत्थ संभवाणुवलंभादो । एदं च सत्तिं पडुच्च वुत्तं । लोभसंजलणस्स वि ताधे चेव संकमसत्ती समुप्पण्णा त्ति । अण्णहा पुण जाव तिविहा माया ण ओकड्डिदा ताव अणाणुपुव्वीसंकमस्सुववत्ती ण जायदे, तत्तो पुव्वं लोभसंजलणस्स पडिग्गहाभावेण संकमपवृत्तीए संभवाणुवलंभादो। संपहि एत्थतणदिदिबंधप्पाबहुअसरूवावहारणट्ठमुवरिमं पगंघमाह
___ * जाधे असंखेज्जवस्सिओ हिदिबंधो मोहणीयस्स ताघे मोहणीयस्स समान कालमें होनेवाला जो मोहनीयकका आनुपूर्वीसंक्रमका नियम आरम्भ हुआ था वह भी उतरनेवालेके सब अवस्थाओंमें नहीं है इस प्रकार पूर्वमें अवधारित स्वरूपवाले इस अर्थविशेषका फिर भी निश्चय करनेके लिये आगेके सूत्रका अवतार हुआ है
___ * अनिवृत्तिकरणसे लेकर मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वी संक्रम होने लगता है। और लोभका भी संक्रम होने लगता है।
$ १७९. उतरनेवाले उपशामकके अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर जिसका विषय अतिक्रान्त हो गया है ऐसे मीहनीयका आनुपूर्वीसंक्रम सब जगह नहीं रहता, किन्तु यहाँपर अर्थात् अनिवृत्तिकरणसे लेकर अनानुपूर्वीसंक्रम ही होता है और इसीलिए लोभसंज्वलनका भी संक्रम होता है यह यहां इस सूत्रके अर्थका निश्चय है।
शंका-उतरनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समयसे लेकर ही मोहनीयकर्मका अनानुपूर्वीसंक्रम होता है ऐसा क्यों नहीं कहते?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें मोहनीयकर्मका बन्ध न होनेसे वहाँ संक्रमकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है । और यह शक्तिको अपेक्षा कहा है, क्योंकि लोभसंज्वलनकी तो उसी समय संक्रमकी शक्ति उत्पन्न हो जाती है । अन्यथा जबतक तीन प्रकारको मायाका अपकर्षण नहीं होता तबतक अनानुपूर्वी संक्रमकी उपपत्ति नहीं होती है, क्योंकि उससे पूर्व लोभसंज्वलनके प्रतिग्रहका अभाव होनेसे संक्रमकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं है। अब यहाँ होनेवाले स्थितिबन्धके अल्पबहुत्वका निश्चय करनेके लिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं
* जब मोहनीय कर्मका असंख्यात वर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है तब मोहनीय