Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे * केवचिरमुवसंतं ति विहासा । ६९५. सुगमं । * तं जहा। ६९६. एदं पि सुगमं । * उवसंतं णिव्वाघादेण अंतोमुहुत्तं ।
६ ९७. एदस्सत्थो वुच्चदे-जदि मरणसण्णिदो बाघादो पत्थि तो गqसयवेदादिपयडीणं सम्बोवसमणं कादण अंतोमुहुत्तकालमच्छदि, तनो परमुवसमपज्जायस्सावट्ठाणासंभवादो। उवसमसेढिं चडिय सव्वोवसमं कादूण पुणो ओदरमाणस्स जाव पसत्थोवसामणा ण णस्सदि ताव अंतोमुहुराकालं सव्वोवसामणाए परिणदो होदूणच्छदि चि भणिदं होदि । वाघादेण पुण एगसमओ वि लब्भइ । तं कधं १ णवंस० पसत्थोवसामणं कादण एगसमयमच्छिय से काले कालं कादूण देवेसुववण्णो तस्स वाघादेणेयसमओवसममुवलब्भदे । एवमित्थिवेदादीणं पि जोजेयव्वं ।
* अणुवसंतं च केवचिरं ति विहासा। होनेपर गाथाके पूर्वार्धकी विभाषा समाप्त हुई। अब गाथाके उत्तरार्धको विभाषा करनेके लिए आगेका सूत्रप्रबन्ध आया है
* कितने काल तक उपशान्त रहते हैं इसकी विभाषा करते हैं । ६९५. यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६९६. यह सूत्र भी सुगम है।
* णपुंसकवेद आदि कर्म निफ्षातरूपसे अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त रहते हैं।
६९७. इसका अर्थ कहते हैं-यदि मरणसंज्ञावाला व्याघात नहीं होता तो नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंका सर्वोपशम करके वह अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, क्योंकि इतने कालके बाद उनकी उपशमपर्यायका अवस्थान असम्भव है। उपशमश्रेणिपर चढ़कर और सर्वोपशम करके पुनः उतरनेवालेको जब तक प्रशस्त उपशामना नष्ट नहीं होती है तब तक अन्तर्मुहूर्त काल सर्वोपशामनासे परिणत होकर यह जीव अवस्थित रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। व्याघातसे तो एक समय भी प्राप्त होता है।
शंका-वह कैसे?
समाधान-नपुंसेकवेदकी प्रशस्तोपशामना करके और एक समय रहकर तदनन्तर समयमें कालगत होकर जो देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके व्याघातसे एक समय प्रशस्त उपशम उपलब्ध होता है। इसी प्रकार स्त्रीवेद आदिकी अपेक्षा भी योजना करनी चाहिए।
* अब कौन कर्म कितने काल तक अनुपशान्त रहते हैं इस पदकी विभाषा करते हैं।'