Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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उवसामणाक्खएण पडिवदमाणपरूवणा $ १५५. जहा लोहादिपयडीओ ओकड्डेमाणो सगवेदगद्धादो आवलियन्भहियं गुणसेढिणिक्खेवं करेदि किमेवमेसो वि आहो अण्णहा ति एदेण पुच्छिदं होदि ।
* पढमसमयकोघवेदगस्स बारसण्हं पि कसायाणं जो गुणसेंदिणिक्खेवो सो सेसाणं कम्माणं गुणसे दिणिक्खेवेण सरिसो होंदि ।
१५६. पढमसमयकोहवेदगस्सेदस्स बारसण्डं पि कसायाणं जो गुणसेढिविण्णासो सो सेसाणं णाणावरणादिकम्माणं गुणसेढिणिक्खेवेण पुन्वावहारिदपमाणेण सरिसो त्ति घेत्तव्यो । एत्तो पाये सव्वेसि ओकडिज्जमाणाणं कम्माणमपुव्वाणियट्टिकरणाद्धाहिंतो विसेसाहियो, पुव्वपयट्टगुणसेढिणिक्खेवं मोत्तूण पयारंतरासंभवादो ।
* जहा मोहणीयवजाणं कम्माणं सेसे सेसे गुणसेटिं णिक्खिवदि तहा एत्तो पाये वारसण्हं कसायाणं सेसे सेसे गुणसेढी णिक्खिविदव्वा ।
$ १५७. णाणावरणादिकम्माणं व बारसण्हं पि कसायाणं एत्तो पाए पयारंतरपरिहारेण गलिदसेसे गुणसेढिणिक्खेवो होइ त्ति एदेण सुत्तेण जाणाविदं । संपहि जाघे एवंविहो गुणसेढिणिक्खेवो जादो ताधे चेव बारसण्हं एदेसि कम्माणमंतरमावरिज्जदि त्ति घेत्तव्वं । जस्स कसायस्स उदएण सेढिमारूढो तम्मि कसाये ओकडिदे एवंविहो गुणसेडिणिक्खेवो अंतरावरणं च होदि त्ति णिच्छेयव्वं ।
१५५. जिस प्रकार लोभादि प्रकृतियोंका अपकर्षण करनेवाला अपने वेदककालसे एक आवलि अधिक गुणश्रेणिनिक्षेप करता है क्या इसी प्रकार क्रोधवेदक जीव भी गुणश्रेणिनिक्षेप करता है या अन्य प्रकारसे करता है यह इस सूत्र द्वारा पृच्छा की गई है।
* प्रथम समयवर्ती क्रोधवेदकके बारहों कषायोंका जो गुणश्रेणिनिक्षेप होता है वह शेष कर्मोके गुणश्रेणिनिक्षेपके समान ही होता है।
१५६. इस प्रथम समयवर्ती क्रोधवेदकके बारहों कषायोंका जो गुणश्रेणिविन्यास होता है वह शेष ज्ञानावरणादि कर्मोंके गुणश्रेणिनिक्षेपके पहले निश्चित कराये गये प्रमाणके सदृश होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। इससे आगेके सभी अपकर्षित होनेवाले कर्मोंका गुणश्रेणिनिक्षेप अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिक होता है, क्योंकि पूर्वमें प्रवृत्त हुए गुणश्रेणिनिक्षेपको छोड़कर यहाँ दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है। _जिस प्रकार मोहनीय कर्मको छोड़कर शेष कर्मोंके गुणश्रेणिको शेष-शेषमें निक्षिप्त करता है उसी प्रकार यहाँसे लेकर बारह कषायोंकी गुणश्रेणिको शेष-शेषमें निक्षिप्त करना चाहिये।
६१५७. ज्ञानावरणादि कर्मोंके समान यहाँसे लेकर बारह कषायोंका भी दूसरे प्रकारका परिहार कर गलित शेषमें गुणश्रेणि निक्षेप होता है इस बातका इस सूत्र द्वारा ज्ञान कराया गया है। अब जिस समय इस प्रकारका गुणश्रोणिनिक्षेप हो गया है उसी समय इन बारह कषायोंके अन्तरको पूरता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये। जिस कषायके उदयसे श्रोणिपर चढ़ा था