Book Title: Kasaypahudam Part 14
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
तिविहाए मायाए च तुल्लो। मायावेदगद्धादो विसेसाहिओ ।
$ १४२. जहा तिविहाए मायाए मायावेदगद्धादो विसेसाहिओ एत्थ गुणसेक्विो जादो | एवं तिविहस्स लोहस्स वि तप्पमाणो चेव एहिमाढत्तो चि भणिदं होदि । वरि तिन्हं पि लोहाणमुदयावलियबाहिरे पदेसविण्णासो, तेसिमुदयासंभवादो |
* सव्वमायावेदगद्धाए तत्तियो तत्तियो चेव णिक्खेवो ।
$ १४३. तिविहस्स लोहस्स तिविहाए मायाए च जाव मायावेदगद्धाचरिमसमयो ताव अवट्टिदो चेव गुणसेढिणिक्खेवों, ण गलिदसेसो त्ति वृत्तं होइ । णाणावरणादिकम्माणं तक्कालियगुणसेढिणिक्खेवो केरिसो होदि ति आसंकाए इदमाह -
* सेसाणं कम्माणं जो पुण पुव्विल्लो णिक्खेवो तस्स सेसे सेसे चैव णिक्खिवदि गुणसेटिं ।
S १४४. णाणा वरणादिकम्माणं पुव्वाढत्तगुण सेढिणिक्खेवस्स अपुव्वाणि यट्टि - करणद्धाहिंतो विसेसाहियमाणस्स गलिदसेसायामेण झीयमाणस्स सेसे सेसे चैव णिक्खेवो होइ णाण्णारिसो ति भणिदं होइ । संपहि पढमसमयमायावेदगस्स मायालोहसंजलणाणं दोन्हं पि बंधसंभवे तत्थ तेसिं संकमकमावहारणमुत्तरमुत्तावयारो --
गुणश्रेणिनिक्षेप एक समान होता है जो मायाके वेदक कालसे विशेष अधिक होता है ।
६ १४२. जिस प्रकार तीन प्रकारकी मायाका गुणश्र ेणि निक्षेप यहाँपर मायाके वेदककालसे विशेष अधिक हो गया है उसी प्रकार तीन प्रकारके लोभका भी यहाँ पर तत्प्रमाण ही गुणश्रेणि निक्षेप प्राप्त होता है, यह इस सूत्रका अर्थ है । इतनी विशेषता है कि तीन लोभोंका उदपावलिके बाहर प्रदेशविन्यास होता है, क्योंकि वहाँ उनका उदय नहीं पाया जाता ।
* पूरे मायावेदककालके भीतर उतना उतना ही निक्षेप करता 1
$ १४३. तीन प्रकारके लोभ और तीन प्रकारकी मायाका मायावेदक कालके अन्तिम समय तक अवस्थित ही गुण णिनिक्षेप होता है, गलित शेष नहीं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ज्ञानावरणादि कर्मोंका उस कालमें कैसा गुणश्रेणि निक्षेप होता है ऐसी आशंका होनेपर इस सूत्र को कहते हैं
* परन्तु शेष कर्मोंका जो पूर्वका निक्षेप है उसके निक्षिप्त करता है ।
शेष- शेषमें ही गुणश्रेणिको
$ १४४. ज्ञानावरणांदि कर्मोके पहले स्वीकार किये गये अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे विशेष अधिक प्रमाणवाले तथा गलित शेष आयामरूपसे गलनेवाले गुणश्र णिनिक्षेपका उत्तरोत्तर शेष - शेषमें निक्षेप होता है, अन्य प्रकारसे नहीं यह उक्त सूत्रका तात्पर्य हैं । अब प्रथम समयवर्ती मायावेदकके माया और लोभ दोनों संज्वलनोंका बन्ध सम्भव होनेपर वहाँ उनके संक्रमके
१. ता० प्रती [ गुणसेढि ] णाणा - इति पाठः ।