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के प्रयोग दिखाई देते हैं । इन की पद्यरचना में भावुकता और भक्ति का स्रोत बहता है । जहां तहां उचित अलंकारों का प्रयोग किया गया गया है । " द्वादश भावना" में अनुप्रास ने वैराग्य रस का पोषक हो कर खूब ही रंग बांधा है । " चतुर्विंशतिस्तवन" में करुणा, विलाप और प्रभु भक्ति कूट २ भरी है । उदाहरण के लिये श्री नमिनाथस्तवन को देखिये
तारो जी मेरे जिनवर साई, वांह पकड़ कर मोरी ।
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कुगुरु कुपन्य फन्द थी निकसी, सरण गही अब तोरी ॥ ता०॥१॥ नित्य अनादि निगोद में रुलतां झुलतां भवोदधि मांही । पृथ्वी अप तेज वात सरूपी, हरितकाय दुख पाई ॥ ता० ॥२॥ वितिचउरिन्द्री जात भयानक, संख्या दुख की न काई । हीन दीन भयो परवस परके, ऐसे जनम गमाई ॥ ता० ॥ ३ ॥ मनुज अनारज कुल में उपनो, तोरी, खबर न काई । ज्यू त्यूँ कर अव मग प्रभु परख्यो, अब क्यों बेर लगाई ॥ ता०॥४॥ 'तुम गुण कमल भमर मन मेरो, उड़त नहीं है उड़ाई ।
तृषित मनुज अमृतरस चाखी, रुच से तृपत वुझाई ॥ ता०॥५॥ भवसागर की पीर हरो सब, मेहर करो जिन राई हग करुणा की मोह पर कीजो, लीजो चरण छुहाई ॥ ता० ॥६॥ 'विप्रानन्दन जंग दुख कन्दन, भगत बद्दल सुखदाई । ". आतमराम रमण जगस्वामी, कमित फल बरदाई ॥ ता० ॥७॥
जय महाराज साहिब इस को अपने मधुर स्वर से गाते
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