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जैन राजतरंगिणी
ग्रहों से सुल्तान द्वारा पुत्रवत् वर्धित किया गया । अतएव उसके असीम प्रसाद की निस्कृति (विस्तार) की अभिलाषा से, उसके गुणों द्वारा आकृष्ट मन होकर, मैं उसके वृतान्त का वर्णन करता हूँ ।" ( १:१:११-१२) श्रीवर सुल्तान की सेवा में था । उसका वह स्पष्ट उल्लेख करता है - 'जिस नृप की जीविका का भोग, प्रतिग्रह एवं अनुग्रह प्राप्त किया, श्रीवर पण्डित ऋणमुक्त होने के लिये, उसका वृत्त वर्णन करता हूँ ।' (३ : ३ ) श्रीवर आभ्यासिक कवि है उसने गुरु जोन राज से शिक्षा प्राप्त किया था । साहित्य साधना का अभ्यास किया था। उसकी रचना मौलिक है ।
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राजतरंगिणी :
तरंगिणी शब्द कल्हण के पूर्व भी संस्कृत साहित्य में प्रचलित था । कल्हण ने सर्वप्रथम राजतरंगिणी शब्द का प्रयोग इतिहास रचना के लिए किया है । कल्हण के महाकाव्य के कारण, राजतरंगिणी शब्द प्रसिद्ध होकर, पुरानी तरंगिणी शीर्षक ग्रन्थों का महत्व कम कर दिया ।
जोन राज ने कल्हण की राजतरंगिणी से प्रेरणा ली थी । तरंगिणी के सूखे प्रवाह को दो शताब्दियों पश्चात् पुनः प्रवाहित किया। उसके कारण धारा सूखने नहीं पायी । कल्हण ने कलियुग के प्रारम्भ से सन् ११४९ ई० का इतिहास प्रथम राजतरंगिणी में लिखा था । सन् १९४९ ई० से सन् १४५९ ई० का इतिहास जोन राज ने द्वितीय राजतरंगिणी में लिखा है । सन् १४५९ ई० से १४८६ ई० का इतिहास श्रीवर ने तृतीय अर्थात् जैनराज तरंगिणी रूप में प्रस्तुत किया है । चौथी राजतरंगिणी श्री प्राज्य भट्ट ने लिखा है । वह अप्राप्य है । उस राजतरंगिणी में सन् १४८६ से सन् १५१३ ई० का इतिहास है । उसके विषय में कोई नवीन सूचना अभी तक नहीं मिली है। उस ग्रन्थ के प्राप्त होने पर ही, साधिकार उसके विषय में कोई मत व्यक्त किया जा सकता है ।
अन्तिम अर्थात् पंच राजतरंगिणी का रचनाकार शुक है । प्राज्य भट्ट की राजतरंगिणी न मिलने के कारण, उसे चौथी राजतरंगिणी की संज्ञा कुछ लेखकों ने दी है। कलकत्ता तथा बम्बई संस्करणों में शुक राजतरंगिणी को प्राज्य कृत, चौथी राजतरंगिणी मानकर, गलतियाँ की गयी है । उसे चौथी राजतरंगिणी मानना संगत नहीं है ।
शुक ने शाहमीर वंश की पतनावस्था देखा था । उसने सन् १५९३ ई० से १५३८ ई० का इतिहास लिखा है । वह काव्य तथा कथावस्तु की दृष्टि से राजतरंगिणियों में चौथा ही स्थान रखती है ।
श्रीवर ने ग्रन्थ-कथा प्रसंग में ग्रन्थ का नाम 'जैन' राजतरंगिणी नहीं दिया है। केवल इति पाठ में 'जैन' शब्द राजतरंगिणी के पूर्व लिखा है । कुछ पाण्डु लिपियों में केवल राजतरंगिणी शीर्षक है ।
श्रीवर के गुरु जोन राज ने अपने ग्रन्थ का नाम राजतरंगिणी रखा था । शुक ने भी ग्रन्थ का नाम • राजतरंगिणी रखा है । श्रीवर क्यों 'जैन' नाम लिखा है ? कोई कारण होना चाहिए । श्रीवर के समय 'जैन विलास' 'जैन चरित', 'जैन तिलक' आदि ग्रन्थों की रचनाएँ हुई थी। उनमें केवल जैनुल आवदीन का ही चरित्र वर्णन है ।
उक्त ग्रन्थों के समान अपने ग्रन्थ की विशेषता दिखाने के लिए श्रीवर ने 'जैन' राजतरंगिणी नाम रख, उन ग्रन्थों की पंक्ति में श्रेष्ठ स्थान लेना चाहता था । यहाँ एक तर्क उपस्थित किया जा सकता है । प्रथम तरंग में लिखता है । वह जैनुल आवदीन और उसके पुत्र का चरित्र वर्णन करना चाहता था । जैन राजतरंगिणी का नाम तभी सार्थक माना जाता, जब उसमें केवल ज़ैनुल आवदीव का वर्णन होता ।