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जेनराजतरंगिणी
आभार :
पद्मभूषण ठाकूर जयदेव सिंह संगीत एवं दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान हैं। ओवर ने तत्कालीन राग, रागिनी, एवं वाद्य का प्रचुर उल्लेख किया है। कितने ही संगीत शास्त्र के पण्डितों से जिज्ञासा किया। कोई अध्ययन कर विषय पर प्रकाश न डाल सका। नई दिल्ली से ठाकुर साहब से परिचय था । वह संगीत विभाग आकाशवाणी के निर्देशक थे। उनसे चर्चा किया। सहज सहृदयता से श्रीवर लेकर अध्ययन किया। जहाँ मेरी पहुँच नहीं थी । रागों एवं वाद्यों के तत्कालीन एवं वर्तमान रूपों पर प्रकाश डाला है। ठाकुर साहब का वर्तमान जीवन राजर्षि अनुरूप है। वे हमारे महाल औरङ्गावाद वाराणसी के पास सिद्धगीर मुहल्ला में काशीवास करते हैं । काशी के आध्यात्मिक जीवन पर उनके अपने स्वयं विचार है । वे कहा करते हैं । काशी में एक प्रकार की स्पन्दन का अनुभव होता है। काशी का निवासी स्वतः अध्यात्म के पास पहुँचता है। मैंने इस पर कभी ध्यान नहीं दिया था। तत्पश्चात् बाहर से आने वालों से सम्पर्क स्थापित किया । जिज्ञासा किया। कितने ही लोगों ने उत्तर दिया है। काशी में एक प्रकार की शान्ति है मुसलमानों ने उसे दूसरे शब्दों में कहा—यहाँ खामोशी महसूस होती है। अन्य ही पहुँचे लोगों ने बताया। उन्हें यहाँ से फकीरों, सन्तों की सुगन्धि मिलती है । यहाँ जन्म से ही, तथा कुटुम्ब के लम्बे ३०० वर्ष के निवास से काशी के जीवन से अभ्यस्त हो गया हूँ। इसलिए काशी के नैसगि रूप को पहचान नहीं सका था। मैं ठाकुर साहब के प्रति सादर अभार प्रकट करता हूँ ।
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पुस्तक प्रस्तुत करने में श्री पशुपति प्रसाद द्विवेदी बाचार्य, एम० ए० प्राध्यापक, उत्तर रेलवे कालेज वाराणसी का आभारी हूँ । उनका सहयोग अन्य राज तरंगिणियों के समान, इस रचना काल में मिलता रहा है। उनका संस्कृत ज्ञान विगत दश वर्षों से गम्भीर होता गया है। उनके पारिश्रम एवं व्यवहार में समय अन्तर डालने में असमर्थ हो गया है । उनके सुशील स्वभाव एवं शोधक प्रवृत्ति के कारण मुझे, राहत मिलती रही है । उनके प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ ।
श्री विट्ठल दास जी चौखम्बा संस्कृत सीरीज़ ने अपनी स्वाभाविक सहृदयता से प्रकाशन का भार उठाया है। इसके लिए उनका कृतज्ञ हूँ । पुस्तक का प्रूफ श्री प्रेम नारायण शर्मा चौखम्बा ने देखा है । सर्वश्री अकबाल नारायण सिंह तथा माधव प्रसाद शर्मा प्रूफ पहुँचाने तथा लाने में जो सहायता प्रदान किये हैं, वह स्तुत्व है। वर्द्धमान मुद्रणालय के मालिक श्री चि० राजकुमार जैन पर जैसा कार्य समझ कर, पुस्तक मुद्रण करने की कृपा की है। मैं उक्त सभी महानुभावों का आभारी हैं, जिनके सहयोग बिना कार्य पूर्ण होना कठिन था ।
अन्त में उस अव्यक्त शक्ति को नमस्कार करता हूँ। जिसकी प्रेरणा से मैं इस कार्य में लगा । कितनी ही बार पुनः राजनीति में प्रवेश करने की इच्छा हुई परन्तु उस अव्यक्त शक्ति ने मुझे दुनिया से अलग रखकर, कार्य में रत रखा। उसकी कृपा से समस्त आठों खण्डों का कार्य समाप्त हुआ, अन्यथा मुझमें शक्ति तथा धैर्य कहा था ?
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- रघुनाथ सिंह
औरंगाबाद, वाराणसी नगर ९ नवम्बर सन् १९७६ ई०