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उद्गम
जैन तरंगिणी : राजतरंगिणी रचना परम्परा में जैन राज तरंगिणी का तृतीय स्थान हैं । इसके पूर्व कल्हण एवं जोनराज ने राजतरंगिणियों का प्रणयन किया था। श्रीवर पूर्व कालीन परम्परा का निर्वाह करता है । ग्रन्थ का शीर्षक राजतरंगिणी देता है। पूर्व दोनों राजतरंगिगियों और प्रस्तुत रचना में भेद प्रकट करने के लिए, जैन शब्द जोड़ दिया है।
श्रीवर ने इतिपाठ के अतिरिक्त ग्रन्थ का पूरा नाम और कहीं नहीं लिखा है प्रारम्भ में वह केवल इतना लिखा है इसी जोनराज का शिष्य में पीवर पण्डित राजावली ग्रन्थ के शेष को पूर्ण करने के लिए उद्यत हूँ (१:१:७) तरंग तीन में वह ग्रन्थ का नाम जैन राजतरंगिणी न देकर केवल राजतरंगिणी लिखता है- 'अपने आँखों से देखे तथा स्मरण किये गये, राजाओं की विपत्ति वैभव, आदि विकृतियों के कारण, यह राजतरंगिणी किसमें वैराग्य नहीं उत्पन्न करेगी ?' ( ३:४ )
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श्रीवर राज कवि था । सुल्तान जैनुन आवदीन के प्रश्रय में वृद्धि प्राप्त किया था । स्वामी के प्रति आभार प्रकट करने के लिए, राजतरंगिणी के साथ सुल्तान जैनुल आबदीन का संक्षिप्त नाम 'जैन' जोड़ दिया है। तत्कालीन जगत के राज कवियों की यही परम्परा रही है "विक्रमांकदेवचरित', 'पृथ्वीराज विजय', 'कुमारपाल चरित' 'पृथ्वीराज', 'बिसलदेव' राम्रो आदि ग्रन्थ इसके ज्वलन्त उदाहरण है। जैनुल बावदीन के नाम पर जैन नगर, जैन दुर्ग, जैन कुल्पा, जैन कदल, जैन गंगा, जैन ग्राम, जैन गिर, जैन लंका, जैन वाटिका, जैन सर आदि रखे गये थे। उस श्रृंखला में राजतरंगिणी के साथ जैन जोड़कर, उसने परम्परा का अध्याय जैसे बन्द किया है ।
श्रीवर सुल्तान जेल आवदीन को जैन नृपति (३:४०२, ४:४०३) जैन भूप (२:१२७, ३:१३८, १४९, ५५६) जैन (४.५४ २०३०, ३:१५२, १५४) जैन महीपत (२:१३२, ३:२६५) आदि 'जेन' शब्द से सम्बोधित करता है ।
लादीन के जीवन काल में उसके नाम पर, संस्कृत में 'जैन तिलक' (१२:२४) जैन प्रका (१:४:३८) 'जैन विलास' आदि काव्यों की रचनाएँ की गयी थी।
श्रीवर राज कवि था । राज कवि की बन्दना करता है। ( १:१:३) 'भूतकालीन जिस राज्य वृतान्त को अपनी वाणी की योग्यता से बन्दनीय है।' (३:२)
राजकवि : कवि की बन्दना वह पुनः करता हैवर्तमान करता है, वह योगीश्वर कवि
सुल्तान जैनुल आवदीन ने श्रीवर का लालन-पालन, पुत्रवत किया था। सुल्तान के प्रकट करते यह सिखता है" तत् तत् गुणों के आदान तथा एव सम्पत्ति के प्रदान पूर्वक ग्राम
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प्रति कृतज्ञता हेमादि अनु