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भूमिका
सभी भारतीय साधना पद्धतियों का मुख्य लक्ष्य समाधि या समभाव की प्राप्ति रहा है। जैनदर्शन में वीतराग अवस्था, बौद्धदर्शन में वीततृष्ण होना तथा हिन्दू धर्म दर्शन में अनासक्त होना ही आत्मपूर्णता का सूचक माना गया है। वस्तुतः जब चित्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर समभाव में स्थित होता है, तब ही व्यक्ति आत्मपूर्णता या आत्मतोष की अनुभूति करता है। आत्मा की इसी समत्वपूर्ण, निर्विकल्प अवस्था को ही समाधि, निर्वाण, मोक्ष, मुक्ति आदि नामों से अभिहित किया गया है।
जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा था कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मोक्ष है। समत्व की साधना को न केवल जैनदर्शन ने ही स्वीकार किया है अपितु बौद्धदर्शन, वेदान्तदर्शन और योगदर्शन आदि सभी ने चित्तवृत्ति का निरोध होने या चित्त के निर्विकल्प होने अथवा उसके तनाव और विक्षोभ से रहित होने में ही अपनी साधना का सार माना है। इसे ही समत्वयोग की साधना कहा है।
व्यक्ति की इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, मानसिक विक्षोभ, उद्वेग, तनाव आदि उसकी चित्त की स्थिरता को भंग करते हैं। किन्तु समत्वयोग का उद्देश्य व्यक्ति को मानसिक उद्वेगों, तनावों, विक्षोभों आदि से मुक्त करना है। __भगवान महावीर ने भगवतीसूत्र में स्पष्ट रूप से बताया था कि
आत्मा का स्वभाव समत्व है और उस समत्व को प्राप्त कर लेना ही जीवन का चरम पुरुषार्थ है। इसी समत्वयोग की साधना को जैनदर्शन में सामायिक की साधना के रूप में माना गया है। संक्षेप में कहें तो जैन धर्म की साधना सामायिक की साधना है और सामायिक की साधना समभाव, समता या वीतरागता की साधना है। वस्तुतः सामायिक और समत्वयोग एक दूसरे के पर्याय ही हैं।
गीता में भी समत्व को योग कहा गया है। श्रीमद्भागवत में समत्व की साधना को अच्युत अर्थात् परमात्मा की आराधना कहा गया है। गीता में ब्रह्म अर्थात् परमात्मा को समत्व-स्वरूप बताया
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