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प्रस्तावना
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२१. रागादिनिवारण-पूर्व प्रकरण में ध्यानकी सिद्धि के लिए मनकी स्थिरताको अनिवार्य बतलाया जा चुका है। पर वह मनकी स्थिरता तबतक सम्भव नहीं है जबतक कि अन्तःकरणसे राग आदि नहीं हट जाते । योगी चित्तको आत्मस्वरूपमें स्थित करना चाहता है, पर निमित्त पाकर रागादिके प्रकट होनेपर मनकी आत्मस्थिति रह नहीं पाती। वे रागादि मनको कभी मूढ़, कभी भ्रान्त, कभी भयभीत, कभी संक्लिष्ट और कभी शंकित किया करते हैं। इसलिए वस्तु-स्वरूपका विचारकर इन्द्रियविषयों में इष्ट-अनिष्टकी कल्पनाको छोड़ देना चाहिए। राग और द्वेष दोनों अविनाभावी हैं-यदि एक ओर राग होता है तो दूसरी ओर द्वेषका होना अनिवार्य है। राग और द्वेष ये दोनों मोह ( मढ़ता या अज्ञानता ) के दो रूप है। इस प्रकार यहाँ राग, द्वेष एवं मोहकी विरूपताको प्रकट करते हुए उनके छोड़ने की प्रेरणा की गयी है (1107-46)।
२२. साम्यवैभव-कर्मबन्धके कारणभूत उक्त राग-द्वेषके नष्ट करनेका उपाय समताभाव है । इष्ट-अनिष्ट प्रतीत होनेवाले पदार्थों में जब समताभाव प्रादुर्भूत हो जाता है तब योगीको इस चराचर विश्वमें न तो कुछ हेय रहता है और न कुछ उपादेय भी रहता है । इस प्रकार साम्यभावको प्राप्त हुआ योगी दूसरोंके द्वारा की जानेवाली स्तुति और निन्दामें हर्ष-विषादसे रहित समबुद्धि रहता है। ऐसी स्थिर स्थितिके निर्मित हो जानेपर वह न परीषहोंसे विचलित होता है और न दुष्ट जनों के द्वारा किये जानेवाले भयानक उपद्रवोंसे भी व्याकुल होता है, वह उन्हें कर्मनिर्जराका कारण जानकर शान्तिके साथ सहन ही करता है (1147-79)।
२३. आर्तध्यान-साम्यभाव और ध्यानमें परस्पर आविनाभाव सम्बन्ध है-जैसे साम्यभावके बिना ध्यान सम्भव नहीं है वैसे ही ध्यानके बिना साम्यभाव भी सम्भव नहीं है। कुछ अज्ञानी जनोंने ध्यानका प्रणयन लौकिक कार्यों-जैसे वशीकरण, मारण और उच्चाटन आदि के लिए किया है। उसको नरकादि दुर्गतिका कारण बतलाते हुए चिन्ताके निरोधस्वरूप ध्यानके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । इनमें प्रशस्त ध्यान जहाँ मुक्तिका कारण है वहाँ अप्रशस्त ध्यान संसार-परिभ्रमणका कारण है । इनमें जैसे आर्त और रौद्रके भेदसे अप्रशस्त ध्यान दो प्रकारका है वैसे ही धर्म और शुक्लके भेदसे प्रशस्त ध्यान भी दो प्रकारका है। प्रकृतमें यहाँ अप्रशस्त ध्यानके प्रथम भेदभूत आर्तध्यानका निरूपण करते हुए कहा गया है कि अनिष्ट पदार्थों के संयोग, इष्ट पदार्थों के वियोग, रोगजनित वेदना और आगामी भोगाकांक्षारूप
यसे जो संक्लेशतापर्ण चिन्तन होता है वह आर्तध्यान कहलाता है। आगे इन चार आर्तध्यानोंका विस्तारसे विवेचन करते हुए यह निर्देश किया गया है कि वह आर्तध्यान प्रमत्तसंयत (छठे गुणस्थान ) तक होता है । विशेष इतना है कि निदान नामक चौथा आर्तध्यान प्रमत्तसंयतके नहीं होता, उससे पूर्वके पाँच गुणस्थानों में ही वह सम्भव है ( 1180-1222)।
२४. आर्त-रौद्र-दूसरा अप्रशस्त ध्यान रौद्र है । वह क्रूर अभिप्रायसे होता है । उसके यहाँ ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-हिंसानन्द, मषानन्द, चौर्यानन्द और संरक्षणानन्द । आगे इन चारोंका यहाँ पृथक्-पृथक् बिस्तारसे वर्णन किया गया है ( 1223-66)।
२५. ध्यानविरुद्धस्थान-यहाँ ज्ञान-वैराग्यसे सम्पन्न ध्याताकी प्रशंसा करते हुए प्रथमतः मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा ( मध्यस्थता ) इन चार भावनाओंके स्वरूपको दिखलाकर उनके चिन्तनकी प्रेरणा की गयी है। तत्पश्चात् जहाँ म्लेच्छ व अधम जनोंका निवास हो, जो दुष्ट राजाके द्वारा शासित हो, तथा पाखण्डिसमूह, मिथ्यादृष्टि, कोलिक, कापालिक, भूत-बैताल, जुवारी, मद्यपायी, विट, शिल्पी, कारु, उन्मत्त, उपद्रवी एवं दुराचारिणी स्त्रियोंसे व्याप्त हो ऐसे स्थानका यहाँ ध्यान में बाधक होनेके कारण निषेध किया गया है ( 1267-1301 )।
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