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प्रस्तावना
२७
है कि संसारसे विरक्त हुए संयमी जनोंने यद्यपि स्त्रियोंको घृणास्पद बतलाया है तथापि उन्हें सर्वथा पापिष्ठ नहीं समझना चाहिए । लोकमें कुछ ऐसी भी स्त्रियाँ हैं जो शील और संयमसे विभूषित तथा श्रुत और सत्यसे सम्पन्न होकर अपने कुलको उद्दीप्त करनेवाली हैं। इतना ही नहीं वे अपने सतीत्व, महत्त्व, विनय और विवेकसे भूमण्डलको भूषित करती हैं ( 641-99 )।
१३. मैथुन-कामाग्निसे पीड़ित जो पुरुष उसका प्रतीकार मैथुनसे करना चाहता है उसका यह प्रतीकार घीसे अग्निको शान्त करने जैसा है। जिस प्रकार कोढ़ी मनुष्य खुजलाकर उसकी पीड़ाको दूर करना चाहता है, पर वह उससे शान्त न होकर उत्तरोत्तर वृद्धिको ही प्राप्त होती है, उसी प्रकार वह कामकी पीड़ा उस मैथुन क्रियासे स्थायी रूप में शान्त न होकर उत्तरोत्तर बढ़ती ही है। मैथुनसे मनुष्यको मूर्छा, परिश्रम और क्षयरोगादिका सामना करना पड़ता है । इसके अतिरिक्त वह प्राणिहिंसाका भी कारण है। इस प्रकारसे यहाँ मैथुन कर्मको अतिशय घृणित व कष्टकर कहा गया है (700-25)।
१४. संसर्ग-स्त्रीका संसर्ग किस प्रकारसे मनुष्यको संयमसे च्युत कर देता है, इसका विचार करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि जितेन्द्रिय व तपस्वी साधु भी स्त्रीके सम्पर्क में आकर चिरप्रवर्धित संयमको क्षण-भरमें नष्ट कर देता है। प्रथमतः स्त्रीकी ओर दृष्टिपात होता है, पश्चात उसके प्रति मनमें व्यामोह होता है, फिर परस्परमें वार्तालापकी इच्छा होती है, अनन्तर दोनों में प्रेमानुबन्धका प्रादुर्भाव होता है, तत्पश्चात् परस्परमें विश्वास उत्पन्न किया जाता है, और अन्तमें मनके मिल जानेपर दोनों निर्लज्ज होकर असदाचरणमें प्रवृत्त हो जाते हैं। इससे जो मुमुक्षु संयममें स्थिर रहना चाहता है वह इस समस्त अनर्थके मूल कारणभूत उस ओर दृष्टिपातको ही नहीं करता है। इस प्रकारसे यहाँ स्त्री-संसर्गके दोषोंको दिखलाकर न केवल उस स्त्री-संसर्गसे ही दूर रहनेका उपदेश दिया गया है, बल्कि स्त्रीके संसर्गमें रहनेवाले निन्द्य दुराचारी जनोंसे भी दूर रहने की प्रेरणा की गयी है ( 726-70)।
१५. वृद्धसेवा–यहाँ दोनों लोकोंकी विशुद्धि, परिणामोंकी निर्मलता और विद्या एवं विनयकी वृद्धिके लिए वृद्धसेवाको आवश्यक बतलाया गया है । वृद्धसे यहाँ जो केवल आयुसे वृद्ध है उनका अभिप्राय नहीं रहा, किन्तु जो तप, श्रुत, धैर्य, ध्यान, विवेक, यम और संयमसे वृद्धिंगत हैं उनकी विवक्षा रही है। जिनका सदाचार कभी कलंकित नहीं होता वे आयुसे हीन होते हुए भी वृद्ध माने गये हैं। इसके विपरीत आयुसे वृद्ध होकर भी जो हीन आचरण करता है उसे वृद्ध नहीं माना गया। ऐसे वृद्ध जनोंके समागममें रहनेसे उनके आदर्श जीवन व सदुपदेशसे प्रेरणा पाकर मार्गभ्रष्ट भी जब सन्मार्गमें लग सकता है तब सरलहृदय आत्महितैषीका तो कहना ही क्या है ? इस प्रकारसे यहाँ वद्धसेवा-सत्समागम-से प्राप्त होनेवाले अनेक गुणोंको प्रकट किया गया है ( 771-818)।
१६. परिग्रहदोषविचार-जिस प्रकार कुशल कारीगरके द्वारा उत्तम सामग्रीके द्वारा निर्मित भी सुदृढ़ नौका अत्यधिक भारके रखनेसे नदी या समुद्र में डूब जाती है उसी प्रकार परिग्रहके भारसे-धन-धान्यादि विषयक ममता की अधिकतासे-संयमी पुरुष भी संसार-समद्रमें डब जाता है। परिग्रह बाह्य व अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है। बाह्य परिग्रहमें चेतन माता-पिता, पत्नी, पुत्र, मित्र, दास-दासी व हाथी-घोड़ा आदि तथा अचेतनमें सोना-चाँदी, महल एवं बाग-बगीचा आदि आते हैं। अभ्यन्तर परिग्रह मिथ्यात्व, वेद, राग, द्वेष, हास्य-रति आदि छह नोकषाय और क्रोधादि चार कषायके भेदसे चौदह प्रकार का है। परिग्रहका लक्षण मूच्छाँ-'यह मेरा है। और मैं इसका स्वामी हूँ' इस प्रकारका ममेदभाव है। परिग्रह वस्तुतः यही है। इस अभ्यन्तर परिग्रहपर विजय प्राप्त करनेके लिए ही बाह्य परिग्रहके परित्यागको अनिवार्य बतलाया गया है। कारण यह कि जो बाह्य परिग्रहको नहीं छोड़ सकता है वह वस्तुतः अभ्यन्तर परिग्रहका
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