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शुभाशीष/श्रद्धांजलि
साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ दयानिधि धाम
डॉ. रमेशचंद जैन
वर्द्धमान कालेज, बिजनोर उ.प्र. पूज्य पं. डॉ. दयाचंद जी साहित्याचार्य प्राचार्य श्री गणेश वर्णी दि. जैन विद्यालय सागर (म.प्र.) देश के प्रख्यात सरस्वती पुत्र एवं जैन समाज के प्रतिष्ठित विद्वान थे। वे बड़े विनीत लगनशील, परिश्रमी एवं पूज्य वर्णी गणेश प्रसाद जी के परम शिष्य थे | आपने विद्यालय की 55 वर्ष तक सुदीर्घकालवर्ती सेवा की, इक्यानवे वर्ष में भी आप प्रतिदिन खड़े होकर देवपूजा करते थे।उनकी स्मृति में प्रकाशित होने वाले स्मृति ग्रंथ हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ
विद्वता, सरलता एवं समर्पण का व्यक्तित्व
डॉ. शेखरचंद जैन, अहमदाबाद
प्रधान संपादक - तीर्थंकर वाणी जब जब भी सागर जाने का अवसर मिला है - मुझे आदरणीय पूज्य स्व. श्री पं. दयाचंदजी से मिलने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त हुआ है।
पंडित दयाचंदजी सरलता की प्रतिमूर्ति थे। वे जैनागम के परम ज्ञाता विद्वान थे। पू. गणेश प्रसाद जी वर्णी का आशीर्वाद उन्हें प्राप्त था। देव - शास्त्र गुरु के परम भक्त, आर्ष परम्परा के पोषक पंडित जी पर प्रायः देश के सभी साधु संतो का आशीर्वाद था। वे विद्वानों में आदरणीय थे। उनके अगाध ज्ञान का लाभ हमें उनके प्रवचन, चर्चा एवं लेखों से प्राप्त होता रहता था। “तीर्थंकर वाणी' में भी उनके लेख पत्रिका का गौरव बढ़ाते थे। इतनी अधिक सिद्धी और प्रसिद्धी के बावजूद उनमें यत्किंचित भी विद्वत का अह्म नहीं था। वे वात्सल्य के अगाध सागर थे जिसका आचमन सभी विद्वानो ने किया था और सभी उनके आगे नतमस्तक थे। ऐसे निरभिमानी विद्वत्वर की सरलता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी।
उनका मेरे प्रति सदैव वात्सल्य भाव रहा है। यद्यपि मैं तो उनके सामने जैनागम के ज्ञान की दृष्टि से नगण्य ही था। पर वे मेरी इज्जत करते थे। आवश्यकता से अधिक सम्मान देकर मेरा गौरव ही बढ़ाते थे। उनके साथ 1-2 बार सागर में ही प्रवचनादि करने का गौरव भी मुझे प्राप्त हुआ था।
सेवा और समर्पण उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू था । वे मोराजी में एक अध्यापक के रूप में तो कार्यरत थे पर वास्तव में मात्र अध्यापन करना ही उनका कार्य नही था। अपितु वे बच्चों को संस्कारी बनाने का गुरुतर कार्य करते थे। वे निरंतर चाहते थे कि जैन समाज के युवक आगम का ज्ञान प्राप्त करें, संस्कारों से चारित्रवान बनें और पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी के पदचिन्हों पर चलें। उन्होंने संस्था को नौकरी का स्थान न मानकर उसे अपना घर-परिवार माना और उसके विकास हेतु निरंतर कार्यरत रहे । काम करने में उन्होंने घड़ी नहीं देखी । निरंतर कार्यरत रहना ही उनका स्वभाव था। उनके ज्ञान और
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