Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(XxxVI) ३. जो चल होता है, तात्कालिक या सामयिक होता है उस श्रुत का नाम अंग-बाह्य
"अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य में भेद करने का मुख्य हेतु वक्ता का भेद है। जिस आगम के वक्ता भगवान् महावीर हैं और जिसके संकलयिता गणधर हैं, वह श्रुत-पुरुष के मूल अंगों के रूप में स्वीकृत होता है इसलिए उसे अंग-प्रविष्ट कहा गया है। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वक्ता तीन प्रकार के होते हैं-१. तीर्थंकर २. श्रुत-केवली (चतुर्दशपूर्वी) और ३. आरातीय। आरातीय आचार्यों के द्वारा रचित आगम ही अंग-बाह्य माने गए हैं। आचार्य अकलंक के शब्दों में आरातीय आचार्य-कृत आगम अंग-प्रतिपादित अर्थ से प्रतिबिम्बित होते हैं, इसीलिए वे अंग-बाह्य कहलाते हैं। अंग-बाह्य आगम श्रुत-पुरुष के प्रत्यंग या उपांग-स्थानीय हैं।" उपलब्ध आगम
"आगमों की संख्या के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। उनमें तीन मुख्य हैं(१) ८४ आगम
(३) ३२ आगम (२) ४५ आगम
(इन नामों की सूची के लिए दसवेआलियं, आचार्य तुलसी द्वारा लिखित भूमिका, पृ. XVI-XVII द्रष्टव्य हैं)। इनमें से ३२ आगम इस प्रकार हैं"अंग
(१) आचार (५) भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) (९) अनुत्तरोपपातिकदशा (२) सूत्रकृत (६) ज्ञाताधर्मकथा (१०) प्रश्नव्याकरण (३) स्थान (७) उपासकदशा
(११) विपाकश्रुत (४) समवाय (८) अन्तकृतदशा "उपांग
(१) औपपातिक (५) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (९) कल्पावतंसिका (२) राजप्रश्नीय (६) सूर्यप्रज्ञप्ति (१०) पुष्पिका (३) जीवाजीवाभिगम (७) चन्द्रप्रज्ञप्ति (११) पुष्पचूलिका (४) प्रज्ञापना (८) निरयावलिका (१२) वृष्णिदशा विशेषाश्वयक भाष्य, गाथा ५५२- ३. सर्वार्थसिद्धि, १/२०-त्रयो वक्तारःगणहर-थेरकयं वा,
सर्वज्ञस्तीर्थंकरः, इतरो वा श्रुतकेवली आएसा मुक्क-वागरणाओवा।
आरातीयश्चेति। धुव-चल विसेसओ वा.
तत्त्वार्थराजवार्तिक, १/२०-आरातीयाअंगाणंगेसु नाणत्तं॥ चार्यकृतांगार्थं प्रत्यासन्नरूपमंगबाह्यम्। २. तत्त्वार्थभाष्य, १/२०-वक्तृ-विशेषाद् ५. अंगसुत्ताणि भाग १, भूमिका, पृ. ३१
द्वैविध्यम्।
१.
३.
सजा
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