Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(XXXIV)
हो जाता है। फिर भी ग्यारह अंगों की रचना अल्पमेधा पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए की गई । " ग्यारह अंगों को वे ही साधु पढ़ते थे, जिनकी प्रतिभा प्रखर नहीं होती थी । प्रतिभा सम्पन्न मुनि पूर्वो का अध्ययन करते थे । आगम- विच्छेद के क्रम से भी यही फलित होता है कि ग्यारह अंग दृष्टिवाद या पूर्वों से सरल या भिन्न- क्रम में रहे हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण बासठ वर्ष बाद केवली नहीं रहे। उनके बाद सौ वर्ष तक श्रुत - केवली (चतुर्दशपूर्वी) रहे। उनके पश्चात् एक सौ तिरासी वर्ष तक दशपूर्वी रहे। उनके पश्चात् दो सौ बीस वर्ष तक ग्यारह अंगधर रहे । २
“उक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि जब तक आचार आदि अंगों की रचना नहीं हुई थी, तब तक महावीर की श्रुत - राशि 'चौदह पूर्व' या 'दृष्टिवाद' के नाम से अभिहित होती थी और जब आचार आदि ग्यारह अंगों की रचना हो गई, तब दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थापित किया गया ।
" यद्यपि बारह अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्वों को पढ़ने वाले ये भिन्नभिन्न उल्लेख मिलते है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि चौदह पूर्वों के अध्येता बारह अंगों के अध्येता नहीं थे और बारह अंगों के अध्येता चतुर्दश-पूर्वी नहीं थे । गौतम स्वामी को 'द्वादशांगवित्' कहा गया है। वे चतुर्दश-पूर्वी और अंगधर दोनों थे। यह कहने का प्रकार-भेद रहा है कि श्रुत- केवली को कहीं 'द्वादशांगवित्' और कहीं 'चतुर्दशपूर्वी' कहा गया है ।
"ग्यारह अंग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं । इसलिए जो चतुर्दशपूर्वी होता है, वह स्वाभाविक रूप से द्वादशांगवित् होता है । बारहवें अंग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं । इसलिए जो द्वादशांगवित् होता है, वह स्वभावतः चतुर्दशपूर्वी होता है । अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं - चौदह पूर्व और ग्यारह अंग । द्वादशांगी का स्वतंत्र स्थान नहीं है । यह पूर्वो और अंगों का संयुक्त नाम है।
"कुछ आधुनिक विद्वानों ने पूर्वों को भगवान् पार्श्वकालीन और अंगों को भगवान् महावीरकालीन माना है, पर यह अभिमत संगत नहीं है। पूर्वों और अंगों की परम्परा भगवान् अरिष्टनेमि और भगवान् पार्श्व के युग में भी रही है। अंग अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए रचे गए, यह पहले बताया जा चुका है। भगवान् पार्श्व के युग में सब मुनियों का प्रतिभा-स्तर समान था, यह कैसे माना जा सकता है ? प्रतिभा का तारतम्य अपने-अपने युग में सदा रहा है। मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने पर भी हम इसी बिन्दु पर पहुंचते हैं
१.
विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५५४जइवि य भूतावाए,
सव्वस्स वओगयस्स ओयारो ।
निज्जूहणा तहावि हु,
दुम्मे पप्प इत्थी य ॥
२.
जयधवला, प्रस्तावना, पृष्ठ ४९ । ३. देखिए, अंगसुत्ताणि ( भाग १ ) की भूमिका का प्रारंभिक भाग । उत्तरज्झयणाणि, २३/७ ।
४.