Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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( XXXIII) “एक वर्गीकरण के अनुसार आगम-साहित्य के चार वर्ग होते हैं(१) द्रव्यानुयोग
(३) गणितानुयोग (२) चरणकरणानुयोग
(४) धर्मकथानुयोग यह वर्गीकरण प्रथम दो वर्गीकरणों के मध्यवर्ती काल का है।''
"एक अन्य वर्गीकरण जो सबसे उत्तरवर्ती है, उसके अनुसार आगम चार वर्गों में विभक्त होते हैं(१) अंग
(३) मूल (२) उपांग
(४) छेद "यह वर्गीकरण बहुत प्राचीन नहीं है। विक्रम की १३-१४वीं शताब्दी से पूर्व इस वर्गीकरण का उल्लेख प्राप्त नहीं है।"५
"नन्दी के वर्गीकरण में मूल और छेद का विभाग नहीं है। 'उपांग' शब्द भी अर्वाचीन है। नन्दी के वर्गीकरण में इस अर्थ का वाचक 'अनंग-प्रविष्ट' या 'अंग-बाह्य' शब्द है।"२ (२) पूर्व
आगमों के पूर्व, अंग-प्रविष्ट, अंग-बाह्य आदि विषय में विशद मीमांसा 'अंगसुत्ताणि' (भाग-१) की भूमिका में की गई है। वह इस प्रकार है
"जैन परम्परा के अनुसार श्रुत-ज्ञान (शब्द-ज्ञान) का अक्षयकोष 'पूर्व' है। इसके अर्थ और रचना के विषय में सब एकमत नहीं हैं। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' रखा गया। आधुनिक विद्वानों का अभिमत यह है कि 'पूर्व' भगवान् पार्श्व की परम्परा की श्रुत-राशि है। यह भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती है, इसलिए इसे 'पूर्व' कहा गया है। दोनों अभिमतों में से किसी को भी मान्य किया जाए, किन्तु इस फलित में कोई अन्तर नहीं आता कि पूर्वो की रचना द्वादशांगी से पहले हुई थी या द्वादशांगी पूर्वो की उत्तरकालीन रचना है।
__वर्तमान में जो द्वादशांगी का रूप प्राप्त है, उसमें 'पूर्व' समाए हुए हैं। बारहवां अंग दृष्टिवाद है। उसका एक विभाग है-पूर्वगत । चौदह पूर्व इसी 'पूर्वगत' के अंतर्गत हैं। भगवान् महावीर ने प्रारम्भ में पूर्वगत-श्रुत की रचना की थी। .......... पूर्वगत-श्रुत बहुत गहन था। सर्वसाधारण के लिए वह सुलभ नहीं था। अंगों की रचना अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए की गई। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने बताया है कि 'दृष्टिवाद में समस्त शब्द-ज्ञान का अवतार
१. उत्तरज्झयणाणि, भूमिका, पृ. १२। २. ठाणं, भूमिका, पृ. १५।
उत्तरज्झयणाणि, भूमिका, पृ. १२। ४. समवायांग वृत्ति, पत्र १०१-प्रथमं पूर्वं
तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्वं क्रियमाणत्वात्।
५. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४०
अन्ये तु व्याचक्षते पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन् भाषते, गणधरा अपि पूर्वं पूर्वगतसूत्रं विरचयन्ति, पश्चादाचारादिकम्।