Book Title: Bhagwati Sutra Part 01
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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(xxxv) कि अंगों की अपेक्षा भगवान् पार्श्व के शासन में भी रही है, इसलिए इस अभिमत की पुष्टि में कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है कि भगवान् पार्श्व के युग में केवल पूर्व ही थे, अंग नहीं। सामान्य ज्ञान से यही तथ्य निष्पन्न होता है कि भगवान् महावीर के शासन में पूर्वो और अंगों का युग की भाव, भाषा, शैली और अपेक्षा के अनुसार नवीनीकरण हुआ। 'पूर्व' पार्श्व की परम्परा से लिए गए और 'अंग' महावीर की परम्परा में रचे गए, इस अभिमत के समर्थन में संभवतः कल्पना ही प्रधान रही है। "(३) अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य
___ भगवान महावीर के अस्तित्व-काल में गौतम आदि गणधरों ने पूर्वो और अंगों की रचना की, यह सर्व-विश्रुत है। क्या अन्य मुनियों ने आगम-ग्रन्थों की रचना नहीं की? यह प्रश्न सहज ही उठता है। भगवान् महावीर के चौदह हजार शिष्य थे।' उनमें सात सौ केवली थे, चार सौ वादी थे। उन्होंने ग्रन्थों की रचना नहीं की, ऐसा सम्भव नहीं लगता। नंदी में बताया गया है कि भगवान् महावीर के शिष्यों ने चौदह हजार प्रकीर्णक बनाए थे। ये पूर्वो
और अंगों से अतिरिक्त थे। उस समय अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य ऐसा वर्गीकरण हुआ, यह प्रमाणित करने के लिए कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं है। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्वाचीन आचार्यों ने ग्रंथ रचे तब संभव है उन्हें आगम की कोटि में रखने या न रखने की चर्चा चली और उनके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न भी उठा। चर्चा के बाद चतुर्दशपूर्वी
और दशपूर्वी स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम की कोटि में रखने का निर्णय हुआ किन्तु उन्हें स्वतःप्रमाण नहीं माना गया। उनका प्रामाण्य परतः था। वे द्वादशांगी से अविरुद्ध हैं, इस कसौटी से कसकर उन्हें आगम की संज्ञा दी गई। उनका परतःप्रामाण्य था, इसलिए उन्हें अंग-प्रविष्ट की कोटि से भिन्न रखने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इस स्थिति के सन्दर्भ में आगम की अंग-बाह्य कोटि का उद्भव हुआ।
“जिनभद्रगगणी क्षमाश्रमण ने अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के भेद-निरूपण में तीन हेतु प्रस्तुत किए हैं
१. जो गणधर कृत होता है, २. जो गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित होता है,
३. जो ध्रुव-शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होता है, सुदीर्घकालीन होता है वही श्रुत अंग-प्रविष्ट होता है।
"इसके विपरीत, १. जो स्थविर-कृत होता है,
२. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित होता है, १. समवाओ, समवाय १४, सूत्र ४। २. नन्दी, सूत्र ७९-चोइस पइण्णग
सहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स।