Book Title: Ashtpahud
Author(s): Kundkundacharya, Shrutsagarsuri, Pannalal Sahityacharya
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
वस्तुतः किसी कविके अन्तर्मनको पूरी तरह समझना तथा उसकी भावग्राही व्याख्या करके दूसरोंको समझाना आसान नहीं होता । फिर भी यदि वह इसमें प्रवृत्ति करता है तो यह उसका गुरुतर दायित्व है कि मूल रचयिताके पूरे भावों और वाग्व्यवहारकी समीचीन व्याख्या करे तथा उसमें अन्तर्निहित भावों और गुणोंको प्रकाश में लाये ।
यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थ के टीकाकार श्रुतसागरसूरिकी विद्वत्ताका दर्शन इस टीकामें पदे पदे होता है किन्तु कुछ मूल गाथाओंके अर्थ में विभिन्नता पाई जाती है । कुछ अपनी ओरसे भी ऐसी बातें जोड़ीं जिन्हें आगमानुकूल भी नहीं कहा सकता । मूल गाथागत भावोंके अतिरिक्त ऐसे अप्रासांगिक प्रसंग आवश्यक भी नहीं थे । परमत-खण्डन और स्वमत- पोषणकी शिष्ट परम्परा तो प्रायः सभी मतोंके शास्त्रों में उल्लिखित है। कुछ सीमा तक इस परम्पराका इसमें पालन भी किया गया है किन्तु कुछ प्रसंगों में इसका इस टीकामें अतिक्रमण भी देखनेको मिलता है, जिससे टीकाकारसे कुछ अंशों तक असहिष्णुता और कट्टरताके, भाव झलकने लगते हैं । जबकि अनेकान्तवादी जैन परम्परामें ऐसी सम्भावना - का अवकाश ही नहीं है । इसीलिए जयपुर के शास्त्र भण्डारोंमें संग्रहीत श्रुतसागरीय टीका सहित षट्प्राभृतकी पाण्डुलिपियोंमें 'या टीका झूठी है, गाथा साँची है' तथा 'या टीका अप्रमाण झूठी है, कुमार्गी किया है' — जैसी टिप्पणियों सहित प्रतिक्रियायें उद्धृत देखनेको मिलती हैं ।" सिद्धान्तकी दृष्टिसे इन टिप्पणियों के मूल में अन्तर्निहित भावनाको इस टीकाका गहन अध्येता अपने-आप समझ सकता है । किन्तु इतने मात्रसे इस टीकाकी महत्तांमें कमी नहीं आती, अपितु प्राकृत भाषाकी मूल गाथाओं पर संस्कृत में खण्डान्वय रूपमें लिखित प्राकृत शब्दानुसारी इस टीका द्वारा मूलग्रन्थकारके भावों और शब्दोंको सरल और विस्तृत रूपमें समझने में बहुत सहायता मिलती है। जैन सिद्धान्तके पारिभाषिक शब्दोंकी सरल परिभाषायें, उनकी निरुक्ति तथा व्युत्पत्ति मूलक व्याख्यायें fear भी अध्येता के आकर्षणका कारण बन जाती हैं ।
प्रस्तुत टीकाकी यह भी अपनी विशेषता है कि इसमें श्रुतसागरसूरिने जैन साहित्यके चारों अनुयोगोंसे सम्बन्धित ग्रन्थों और आचार्योंके सैकड़ों दुर्लभ उद्धरणों, प्रमाणों, श्लोकोंको विषयकी पुष्टि एवं उनके प्रतिपादन हेतु प्रसंगानुसार संकलित किया है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं । इसमें उनकी विशाल ज्ञान-गरिमा
१. 'प्राकृत विद्या' ( उदयपुरसे प्रकाशिक त्रैमासिक शोध पत्रिका) अक्टूबर १९८८ के अमें पृष्ठ ३०-३५ पर डॉ० कस्तूरबन्द कासलीवालके "कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी प्रमुख पाण्डुलिपियाँ" नामक केलसे उद्धृतः
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org