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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । करनेवाले वे वात आदिक दृष्य अर्थात् दूषणपात्र वस्तुको अपेक्षा करते हैं। क्योंकि कर्मके विना कर्तीकी क्रियाका असम्भव है । अर्थात् जो इनका कोई वस्तु दूषणपात्र न हो तो इनका दोष नाम विषयीके जितेन्द्रिय नामकी तरह गुणों के अनुकूल न होगा । और कर्ताके विना कर्मका कर्मत्व नहीं हो सकताहै । इसतरह दोषोंके न होनेपर रसादिकोंका दूष्य नाम नहीं पडसकताहै, और दृष्योंके न होनेपर वातादिकोंका दोष नाम नहीं पडसकताहै। तिस दूष्य और दोषोंके परस्परके अपेक्षा करनेसे और दूष्यभावसे इस दूष्यसंज्ञाका लाभ होताहै.
____ अब विष्ठाआदिक मलोंको परिगणन करतेहैं
मला मूत्रशकृत्स्वेदादयोऽपि च ॥१३॥ मूत्र-विष्ठा-स्वेद-इत्यादिक मलसंज्ञावाले होतेहैं । अपि च इस कथनसे दूष्यभी हैं । केवल रस आदि ही दूष्य नहीं हैं क्योंकि जितने मल हैं वेभी सब धातु आदिकोंसे दूषित होतेहैं । जिसतरह रस आदिकोंकी दूष्य संज्ञा और धातु संज्ञा है । तैसेही विट् मूत्र आदिकोंकी मल संज्ञा
और दूष्य संज्ञाहै । इस दोष और धातु और मलके कथनसे देह व्याख्यात हुवा अर्थात् अपने विशिष्टस्वरूपसे कहागया-तैसेही उत्तरग्रंथमें देखलेना चाहिये । "दोषधातुमला मूलं सदा देहस्येति" अर्थ सब कालमें देहके दोष और धातु और मल यह सब मूल है. अब उस देहका जिसतरह निरंतर जिस उपायसे परिपालन होसके उस उपायको कहतेहैं कि
वृद्धिः समानैः सर्वेषा विपरीतैर्विपर्यायः॥ सब दोष-धातु-मल आदिकोंकी तुल्यसद्भाव पदार्थोंसे वृद्धिहोती है अर्थात् अपने प्रमाणसे आधिकता होती है और विपरीत अर्थात् विरुद्ध भाववाले पदार्थोंसे विपर्याय अर्थात् क्षीणता होतीहै ।
सो वृद्धि और क्षीणता सामान्य और विशेषसे द्रव्य गुण कर्म के भेदसे तीन प्रकारसे होतीहै । तैसेही कहाहै । “ सर्वेषां सर्वदा वृद्धिस्तुल्यद्रव्यगुणक्रियैः । भावैर्भवति भावानां विपरीतर्विपर्याय:" अर्थ-सब कालमें सब पदार्थों की अपने समान द्रव्य गुण क्रियावाले पदार्थोंसे वृद्धि होतीहै । और अपनेसे विरुद्ध द्रव्य गुण क्रियावाले पदार्थोंसे सब पदार्थोकी क्षीणता होतीहै । जैसे द्रव्यसे द्रव्यकी वृद्धि कही है। कि " रक्तमापद्यते रक्तेन मांसं मांसेन पार्थिवम् ' अर्थ-जन्तु रक्तसे रक्तको प्राप्त होताहै अर्थात् रक्तकी वृद्धिको प्राप्त होताहै। और मांससे मांसकी वृद्धिको प्राप्त होताहै तैसे ही सलिलरूप दुग्ध जलरूप ही श्लेष्माको बढाताहै । तैसे हो दूधसे पैदा हुवा जो घृत वीर्यको बढाताहै । तैसे ही जीवन्ती और काकोली आदि सोमात्मा द्रव्यविशेष सौम्यधातुओंके मुख्य कारण स्नेह बल पुंस्त्व ओजको बढातेहैं । और मरीच पंचकोल भल्लातक आदि बुद्धि मेधा
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