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(१०)
अष्टाङ्गहृदयेअग्निको बढातेहैं । और गुण जैसे । खरजूर आदि पार्थिव द्रव्य नामसे भी कहे गयेहैं तथापि जलात्मक श्लेष्माको बढातेहैं । क्योंकि स्निग्ध-गुरु-शीत आदि गुणोंसे समान धर्मको प्राप्त होते हैं और कर्मके तीन प्रकार होतेहैं । एक देहसे होनवाला । दूसरा वाचासे होनेवाला । तीसरा मनसे होनेवाला । तिसमें दौडना फांदना तैरना इत्यादिक ( शरीरके कर्म हैं )
और चपलत्व गुणसे समानताको प्राप्तहोनेसे वायुकी वृद्धिके करनेवाले होते हैं और बोलना गान करना इत्यादिक वाचाके कर्म होतेहैं । और मनका कर्म ( मनका व्यापार ) चिन्ता काम शोक भय हैं । यह सबभी मनके क्षोभके हेतु हैं इससे वायुकी वृद्धिके करनेवाले हैं ।
और क्रोध ईर्षा इत्यादिक मनके व्यापार हैं वे संतापके करनेवालेके धर्मको प्राप्त होनेसे पित्तके वर्द्धक होतेहैं । और स्वप्न आलस्य शय्यासुख आदि कर्म स्थैर्यगुणसे समान भाववाले होनेसे कफके वर्द्धक होतेहैं । और जो विशेष अर्थात् विपरीत होताहै सो क्षयका कारण होताहै ।
समानपदार्थोंसे वृद्धि और विशेषोंसे क्षय इस अर्थका वर्णन होचुका । अब वे दोनों वृद्धि और क्षय जिससे वात आदिकोंके होते हैं तिसके निश्चायक अर्थको वर्णन करते हैं।
रसाःस्वाद्वम्ललवणतिक्तोषणकषायकाः ॥ १४ ॥ .
षड् द्रव्यमाश्रितास्ते तु यथापूर्व बलावहाः ॥ स्वादु १ अम्ल २ लवण ३ तिक्त ४ ऊषण ५ कषाय ६ यह छह रस हैं । क्योंकि रसनइन्द्रियसे ग्रहणके योग्य हैं । और वे छहों ६ रसद्रव्य पञ्चभूतात्मक अर्थात् पृथिवी जल अग्नि पवन आकाशमें रहतेहें। और यथापूर्व बलके प्राप्त करनेवाले हैं । जो जो पूर्व सो सो अपनेसे परकी अपेक्षासे बलका देनेवाला है यह प्रयोजन है । तिससे सम्पूर्ण रसोंसे मधुररस बहुतकरके प्राणियोंको बलका देनेवालाहै, और कषाय तो सबसे कमबलका देनेवाला है। तिसमें स्वादु ( मधुर ) कौनहै वृत गुड आदि । अम्ल कहे अल्मिका मातुलुङ्गादि विजौरा नीबू । लवण क्या सैंधव आदि । तिक्त क्या निम्ब आदि । ऊषण कहे कटुक मरीच आदि । कशाय क्या हरीतकी आदि । स्वादु शब्द मधुरका समानार्थ है। ऊषणशब्द कटुकका पर्यायहै । जैसे त्र्यूषण करके त्रिकटुकका ग्रहण होताहै । जो कषाय है सोही कषायक है । और जो कटु है सोही कटुक है ॥ शंका-षट् अर्थात् छह ६ मूलमें क्यों कहा । क्यों कि विनाभी छहके कहे गिनतीसे छह ६ ही होते ॥ उत्तर-छके कहनेसे छही हैं न न्यून है नं समहे न अधिक है ऐसा ज्ञान होता है । यद्यपि रससंज्ञक गुण स्वादु
१ कडुवा।
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