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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमंतम् । पित्त इन दोनोंका उत्कर्ष होवे तौ जठराग्निको तीक्ष्ण जाना चाहिये । क्यों कि वायु जिस गुणसे संयोगको प्राप्त होताहै उसही गुणको बढ़ाता है यह बात प्रसिद्ध है इस ही कारणसे वात और कफ इन दोनोंका उत्कर्ष होनेसे जठराग्निको मन्द जाना चाहिये और जब कफ और पित्त इन दोनोंकी वृद्धि होतीहै तब आहारविशेषके वशसे जठराग्निको कमी मन्द और कभी तीक्ष्ण जाना चाहिये । ___ अब अग्निके चारभावोंको कहके जिस कोष्टमें अग्नि रहताहै उस कोष्ठकेभी चारभावोंको कहते हैं कोष्ठः क्रूरः इस वृत्तार्द्धसे
कोष्ठः क्रूरो मृदुर्मध्यो मध्यः स्यात्तैः समैरपि ॥ वात आदि दोषोंसे क्रमकरके क्रूर-मृदु-मध्य-कोष्ठको जाना चाहिये । जैसे वातके उत्कर्षसे क्रूर, और पित्तके उत्कर्षसे मृदु, और कफके उत्कर्षसे मध्य । और जब सब दोष हानि और वृद्धिसे हीन होतेहैं तबभी मध्य ही कोष्ट होताहै। कारण कि मध्यमें कफ स्थित हो समान रखताहै । अब प्रकृतिके स्वरूपको वर्णन करते हैं शुक्रात॑वस्थैः इत्यादि सार्द्धवृत्तसे
शुक्रा-वस्थैर्जन्मादौ विषेणेव विषक्रिमः॥९॥ तैश्च तिस्त्रः प्रकृतयो हीनमध्योत्तमाः पृथक् ।
समधातुः समस्तासु श्रेष्ठा निन्द्या द्विदोषजाः ॥१०॥ ___ जन्मका आदि गर्भका आधानकाल अर्थात् जन्मके प्रारम्भ गर्भके आदिकालमें पिताका दो अथवा तीन बिन्दुभर रेतः अर्थात् शुक्र और ऋतुकालमें माताका दो अथवा तीन बिन्दुभर शोणित होताहै तिस शुक्र और शोणितमें बात आदि यथाक्रम हीना, मध्या उत्तमा इस तरह तीन प्रकृति होतीहैं। प्रकृति अर्थात् शरीरका स्वरूप । जैसे शुक्रशोणितमें वातके उत्कर्षसे होना प्रकृति होतीहै । और पित्तके उत्कर्षसे मध्या प्रकृति होतीहै । और कफके उत्कर्षसे उत्तमा प्रकृति होतीहैं।
और ( समधातु ) अर्थात् हानि और उत्कर्षसे हीन हैं वात आदि दोष जिसमें ऐसी प्रकृति, सब प्रकृतियों में समा श्रेष्टा उत्तमा इन विशेषणोंवाली चौथी प्रकृति होती है प्रकृतिकी समदोषता भी शुक्रशोणितकी ही समदोषतासे जाना चाहिये । और दो दोषोंसे उत्पन्न तीन प्रकृति सो निन्दित हैं । क्यों कि वे रोगको उत्पन्न करनेवाली होती हैं। वे तीन ( वातपित्तजा-वातश्लेष्मजापित्तश्लेष्मजा) हैं। ___ शंका-जो कि वात-पित्त-कफ यह दोष अधिक होके शुक्र और शोणितमें विद्यमान रहतेहैं तो शरीरकी सिद्धि किस तरह होतीहै । और तिससे यह सिद्ध होता है कि जो दोषोंका अधिकभाव है वही प्रकृति है और नहीं । सो किसतरह दोष आधिक्यको प्राप्त होके प्रकृतिकी कारणताको बहुत सह सकतेहैं । क्यों कि विकृतभावको प्राप्त होनेवाली होनेसे विकृति प्रकृतिका कारण है ऐसा किसीकालमें कहनेमें भी शक्य नहीं है। जैसे विकृति घट अपने कारण मृत्तिकाका किसी कालमें कारण नहीं हो सकता है । और कारणसदृश कार्य होना चाहिये । इस प्रश्नका उत्तर ग्रंथकार
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