________________
२० आनन्द प्रवचन : भाग १०
गणयन्ति न राज्याऽऽपत्यस्नेहं महीभुजः।। ___ "वे ही सच्चे राजा होते हैं जो राज्य हित के लिए पुत्र-स्नेह की भी अवगणना कर देते हैं।"
व्यक्तक्रोधप्रसादरच स राजा पूज्यते जनः।
योऽनुकूलप्रतिकूलयोरिन्द्र-यमस्थानं स राजा ॥' "वस्तुतः राजा वही है, जो अनुकूलजनों के लिए इन्द्र और प्रतिकूलजनों के लिए यम के समान है।"
चक्षुषा मनसावाचा कर्मणा च चतुर्विधम् ।
प्रसादयति यो लोकं, तं लोकोऽनुप्रसीदति ॥' ___ "जो राजा प्रेमदृष्टि से, स्नेहपूर्ण मन से, प्रिय वचनों से, और जनहितकर कार्यों से प्रजा को रंजित (प्रसन्न) करता है, प्रजा उसी राजा से प्रसन्न रहती है।"
राजा के इन सब गुणों से, त्याग और शक्ति से, समय आने पर प्रजा की रक्षा एवं हित के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने की वृत्ति से प्रभावित होकर ही जनता ने शासनकर्ता की अनिवार्यता एवं उपयोगिता मानी थी। भले ही आज राजतन्त्र के बदले लोकतन्त्र आ गया हो, परन्तु जैसे पहले भी राजा को जनता पसन्द करती थी, उसे वंश परम्परा से राजगद्दी मिलती थी, बाद में अयोग्य, निरंकुश, उद्दण्ड या दुष्ट सिद्ध होने पर प्रजा उसे पदच्युत कर देती थी, वैसे ही आज भी शासनकर्ता वर्ग जनता द्वारा (बहुमत से) निर्वाचित होने पर सत्ता पर आता है और विभिन्न विभागों के मन्त्रियों के सहयोग से मिलकर प्रधानमन्त्री राज्य चलाता है, अयोग्य एवं निरंकुश तथा भ्रष्टाचारी सिद्ध होने पर अविश्वास प्रस्ताव द्वारा उसकी सरकार को गिराया और हटाया जा सकता है ।
___ इसलिए राजा से धर्मात्मा, त्यागी, प्रजापालक, प्रजाहितैषी, प्रजा के दुःख को अपना दुःख समझने वाला, आत्मीयजन एवं प्रजावत्सल होने की अपेक्षा रखी गयी है। साथ ही नीतिशास्त्र में राजा को पाँच धर्मों से युक्त, षट्विकारों से मुक्त तथा पिता की तरह प्रजारक्षक होने का भी विधान किया गया है
दुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा, न्यायेन कोषस्य च सम्प्रवृद्धिः। अपक्षपातो निजराष्ट्रचिन्ता पञ्चापि धर्माः नृपपुंगवानाम् ॥
श्रेष्ठ राजाओं के पांच धर्म ये हैं दुष्ट को दण्ड देना, शिष्ट और सज्जन का सत्कार करना, राज्यसंचालनार्थ न्यायपूर्वक कोष की वृद्धि करना, पक्षपात न करना और अपने राष्ट्र के संरक्षण एवं हित की चिन्ता करना।
कामः क्रोधस्तथा लोभो मोहो मानो मदस्तथा। षड्वर्गमुत्सृजेदेनमस्मिस्त्यक्त सुखी नपः॥
१. अज्ञात
२. अज्ञात
३. विदुरनीति २/२५
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org