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आनन्द प्रवचन : भाग १०
जब मन को सुध्यान के द्वारा अन्तर्मुखी बना दिया जाता है ता ज्ञान से परिष्कृत वही मन विषय-कषायों से विमुख होकर अध्यात्म की ओर मुड़ जाता है । साधक का ज्ञान भी आत्मा में स्थिर हो जाता है । इस प्रकार सुध्यान की निरन्तर साधना से समस्त ग्रन्थियों का भेदन करके शरीर और आत्मा का सक्रिय भेदविज्ञान कर साधक शुद्ध आत्मस्वरूप में विचरण करने लगता है, उसका देहाध्यास बिलकुल छूट जाता है । अन्त में, वह अजर-अमर, शाश्वत, अनन्त मोक्ष-सुख की स्थिति प्राप्त कर लेता है।
सांसारिक सुखभोगों के प्रति तीव्र आसक्ति और शरीर के मोह से गजसुकुमार एकदम विरक्त हो गये । प्रभु अरिष्टनेमि का वैराग्योत्पादक उपदेश सुनकर उन्हें शरीर और आत्मा का भेदज्ञान हृदयंगम हो गया। उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया-प्रभु अरिष्टनेमि से मुनिदीक्षा ग्रहण करके मुझे इस भेदविज्ञान को जीवन में चरितार्थ करना चाहिए । आचरण (चारित्र) के रूप में क्रियान्वित कर दिखाना चाहिए।
बस मुनि गजसुकुमार ने दीक्षा के पहले ही दिन प्रभु से जिज्ञासापूर्वक सविनय पूछा-"भगवन् ! ऐसी कोई साधना बताइये। जिससे शीघ्र ही मेरा श्रेय हो, मैं शुद्ध आत्मा की परिपूर्णता तक पहुँच सकूँ।"
___भगवान अरिष्टनेमि ने मुनि गजकुमार की योग्यता, क्षमता, पूर्वजन्मों की साधना के संस्कार, एवं शरीरात्म-भेदविज्ञान की दृढ़निष्ठा देखकर उन्हें प्रोत्साहित करते हुए कहा-"वत्स ! ऐसा उपाय है-बारहवीं भिक्षुप्रतिमा की निष्ठा एवं श्रद्धापूर्वक साधना करना। एक ही रात्रि की साधना है यह ! इसमें रात्रि को श्मशानभूमि में जाकर एकाग्रचित्त से खड़े होकर कायोत्सर्ग (शुक्लध्यान) करना है। जो भी देव-मनुष्य-तिर्यंचकृत उपसर्ग आएँ, उन्हें समभावपूर्वक सहना है। यदि तुमने इस सुध्यान को निष्ठा और समत्व के साथ कर लिया तो तुम्हारा बेड़ा पार हो जायगा।"
गजसुकुमार मुनि ने अत्यन्त श्रद्धा और भावना के साथ विनयपूर्वक प्रभु से से बारहवीं भिक्षुप्रतिमा की साधना अंगीकार की और उनसे आज्ञा लेकर वे महाकाल श्मशान में पहुँच गये। वहाँ भूमि का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करके वे एकाग्रचित्त से एक पुद्गल पर अपनी दृष्टि टिकाकर कायोत्सर्ग (सुध्यान) में खड़े हो गये। उनके मन में एकमात्र शुद्ध, परिपूर्ण और अनन्त शक्तिमान, ज्ञानादि गुणों के पुंज आत्मा का ही चिन्तन चल रहा था।
कुछ ही देर में उनके इस सुध्यान की कठोर परीक्षा की घड़ी आ पहुँची। परीक्षा की घड़ी अत्यन्त सावधानी और अप्रमाद की घड़ी होती है। परीक्षार्थी जरा भी असावधान हुआ, विचलित हुआ कि परीक्षा में असफल । पर ध्यानस्थ मुनि गजसुकुमार अपने आप में पूर्ण सावधान और विराट् आत्मा की गोद में चले गये थे।
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