Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 373
________________ पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती ३४६ सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तेन विनयेन च। विवेकेन स्त्रियः काश्चिद् भूषयन्ति धरातलम् ॥ "ऐसी पतिनिष्ठा नारियां इनी-गिनी हैं, जो अपने सतीत्व से, महानता से, चरित्र से, विनय और विवेक से इस धरातल को विभूषित करती हैं।" पतिव्रता नारी के प्रत्येक कार्य में आत्म-विसर्जन की भावना रहती है। वह केवल अपने सुख का ध्यान रखने वाली स्वार्थिनी नहीं, अपि स्वयं दुःख सहकर भी दूसरों के सुख का ध्यान रखती है । घर में वह रमणी बनकर नहीं, कुलवधू बनकर, सारे कुल के पालन-पोषण का व्रत लेकर आती है, स्वयं कष्ट उठाकर भी घर के सभी प्राणियों के सुख-दुःख का ध्यान रखती है। राजा मान्धाता की ५० कन्याएँ सौभरी प्रिय को ब्याही थीं। एक बार राजा अपनी कन्याओं का हालचाल जानने के लिए सौभरी के निवासस्थान पर पहुंचे। उन्होंने एक-एक कन्या से अलग-अलग मिलकर पूछा-'बेटी! तुम्हें यहां कोई कष्ट तो नहीं है ? पितृगृह की याद आती है या नहीं ?" प्रत्येक लड़की ने प्रायः यही उत्तर दिया-"पिताजी ! आपके आशीर्वाद से मैं सकुशल हूँ। फिर भी अपनी जन्मभूमि की याद किसे नहीं आती? हाँ, मुझे एक ही दुःख है कि पतिदेव अधिक समय मेरे पास ही बिताते हैं, जिससे मेरी अन्य बहनों को कष्ट होता है । यही मेरे दुःख का कारण है।" भारतीय नारी के आत्म-त्याग का यह एक सुन्दर उदाहरण है। आप कहेंगे, ये तो अतीत की बातें हैं, आज कहां ऐसे उदाहरण मिलते हैं ? दीपक की ज्योति भले ही मन्द हो गई हो, किन्तु उसका प्रकाश आज भी घर-घर में मौजूद है । आज भारत में पश्चिम के अन्धानुकरण के कारण भले ही भारतीय नारियों की उज्ज्वल तस्वीर धुंधली हो चली हो, लेकिन आज भी पूर्वज सती-साध्वियों के प्रताप से वह मशाल बुझी नहीं है, जो सहस्रों ही नहीं, कुछ ही दशकों पूर्व उन सन्नारियों ने त्याग-बलिदान की आहुति देकर प्रज्वलित की थी, जिनके इतिहास से भारतीय संस्कृति का इतिहास विश्व के उज्ज्वल नक्षत्र की भाँति चमक रहा है । ___ भारतीय नारियाँ सच्चरित्र और पतिपरायणा हों, इस बात की आवश्यकता पहले भी थी, आज भी है। समाज को अगर शिष्य के रूप में माना जाये तो पतिव्रता एवं सच्चरित्रा नारी को उसके गुरु के रूप में मानना चाहिए। पतिव्रता सती-साध्वी सुशीलवती नारी पुरुष को संस्कृति के अनुरूप शिक्षा, दीक्षा और संस्कार देने में सक्षम है । वह प्राण, संकल्प, मनोबल और उन्नत श्रेयस्कर विचार देने में समर्थ है। वह जिस सांचे में ढालना चाहे, पुरुष को ढाल सकती है। इस दृष्टि से समाज की वह निर्मात्री है। परन्तु इस समाज-निर्माण कार्य में प्रमुख वस्तु उसकी समर्पण वृत्ति, सेवा-भावना, वत्सलता और सच्चरित्रता है। ये ही प्रमुख सद्गुण पतिव्रता नारी को पूजनीय उच्च और गुरु के स्थान पर पहुंचाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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