Book Title: Anand Pravachan Part 10
Author(s): Anand Rushi, Shreechand Surana
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 379
________________ पतिव्रता लज्जायुक्त सोहती एक ही धर्म एक व्रत नेमा । काय वचन मन पतिपद प्रेमा ॥ जगपति व्रताचार विधि अहह्नीं । वेद पुराण सन्त सब कहहीं ॥ भावार्थ स्पष्ट है । परन्तु पतिमता का धर्म होता है—पति का माना हुआ, मनमाना जो काम है, वह चाहे बुरा ही हो, उसे ही मानमे वाली । किन्तु भारतीय नारी पतिव्रता है, पतिमता नहीं; इसीलिए उसे धर्मपत्नी तथा धर्म-सहायिका पद दिया गया है । मैं एक पौराणिक उदाहरण द्वारा पतिव्रता का अर्थ आपको समझाता हूँ ३५५ महर्षि अगस्त्य बहुत ही सादगी से जीवन बिताने का त्यागी-सा जीवन-व्रत लिये हुए थे । उनकी पत्नी लोपामुद्रा के शरीर पर गहना एक भी नहीं था । लोपामुद्रा को दूसरी स्त्रियों को हाथ, पैर, नाक, कान आदि में गहने पहने देख मन में आ जाती, कभी कुछ स्त्रियाँ ही उसे उकसा देतीं - "तुम नारी हो, फिर भी आभूषण नहीं ।" अतः बहुत मन मसोसकर सकुचाती हुई लोपामुद्रा ने एक दिन ऋषि अगस्त्य ने कहा - " पतिदेव ! मेरी एक इच्छा है । मेरी अशिष्टता के लिए क्षमा करें तो कुछ कहूँ ।" ऋषि के अनुमति देने पर उसने कहा - " मेरी विचित्र इच्छा है । एक ऋषि की धर्मपत्नी के लिए शायद सोचना भी अप्रिय लगे । बात यह है कि मैं हमउम्र नारियों को देखती हूँ और उनके द्वारा कसे हुए ताने सुनती हूँ, तो मेरी भी इच्छा हो उठती कि मैं भी आभूषण पहनती । अतः कुछ आभूषण होते तो अच्छा रहता । " गहनों की इस मांग पर ऋषि असमंजस में पड़ गये । सोचने लगे - " मैं एक ऋषि, त्यागी और अपरिग्रहवृत्ति वाला हूँ । एक भी सिक्का मेरे पास नहीं, सांसारिकता से दूर रहता हूँ, फिर आभूषण खरीदने या बनवाने की बात तो विडम्बना है । पर नारी को तो सांसारिक प्रलोभन झकझोरेंगे ही।" पति को चिन्तातुर देख लोपामुद्रा बोली - " मैंने आपको व्यर्थ ही चिन्ता में डाल दिया, पर क्या करूँ, जो स्त्रियाँ मिलती हैं, वे मुझे आभूषणहीन देखकर व्यंगबाण मारती हैं, इससे तंग आकर आपको कह डाला । ऋषि पत्नी होते हुए भी सुहागिन की प्रथम आवश्यकता - आभूषण के लिए मैंने आपको कहकर संकट में डाल दिया; क्षमा करें।" ऋषि को आभूषण बनवाने की चिन्ता सवार हुई । मन ही मन धन याचना करने की योजना बनायी । इतना अधिक धन प्राप्त करने के लिए ऋषि अपने शिष्यों को लेकर राजा श्रुतर्वा के पास पहुँचे । जीवन में पहली बार धन की याचना करने निकले थे । उनका हृदय पवित्र था, सद्भावपूर्वक एक संकल्प उपार्जित धन कदापि स्वीकार न करूँगा, सात्त्विक और पवित्र स्वीकार करूँगा ।" किया - "पाप से कमाई का धन ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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